श्रीमद्भागवत पुराण में भगवान कृष्ण के जीवन और लीलाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है. इस पुराण में भगवान कृष्ण के भक्तियोग का भी वर्णन किया गया है, जो हिंदुओं के लिए एक महत्वपूर्ण मार्ग है.
श्रीमद्भागवत पुराण को वेद व्यास द्वारा लिखा गया माना जाता है. यह पुराण संस्कृत में लिखा गया है और इसमें 18,000 श्लोक हैं. श्रीमद्भागवत पुराण को 12 स्कंधों में बांटा गया है. प्रत्येक स्कंध में एक अलग विषय पर चर्चा की गई है.
श्रीमद्भागवत पुराण एक महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ है. यह हिंदुओं के लिए एक मार्गदर्शक है और यह उन्हें जीवन के सभी पहलुओं के बारे में ज्ञान प्रदान करता है. श्रीमद्भागवत पुराण में भगवान कृष्ण के भक्तियोग का वर्णन किया गया है, जो हिंदुओं के लिए एक महत्वपूर्ण मार्ग है. यह मार्ग लोगों को भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित होने और उनके जीवन में आनंद और शांति प्राप्त करने में मदद करता है.
श्रीमद्भागवत पुराण एक अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है. इसे दुनिया भर में लाखों लोगों ने पढ़ा है और इसका अनुवाद कई भाषाओं में किया गया है. श्रीमद्भागवत पुराण एक अमूल्य रत्न है जो लोगों को जीवन के सभी पहलुओं के बारे में ज्ञान प्रदान करता है.
श्रीमद्भागवत साक्षात् भगवान्का स्वरूप है। इसीसे भक्त-भागवतगण भगवद्भावनासे श्रद्धापूर्वक इसकी पूजा-आराधना किया करते हैं। भगवान् व्यास-सरीखे भगवत्स्वरूप महापुरुषको जिसकी रचनासे ही शान्ति मिली; जिसमें सकाम कर्म, निष्काम कर्म, साधनज्ञान, सिद्धज्ञान, साधनभक्ति, साध्यभक्ति, वैधी भक्ति, प्रेमा भक्ति, मर्यादामार्ग, अनुग्रहमार्ग, द्वैत, अद्वैत और द्वैताद्वैत आदि सभीका परम रहस्य बड़ी ही मधुरताके साथ भरा हुआ है, जो सारे मतभेदोंसे ऊपर उठा हुआ अथवा सभी मतभेदोंका समन्वय करनेवाला महान् ग्रन्थ है-उस भागवतकी महिमा क्या कही जाय। इसके प्रत्येक अंगसे भगवदभावपूर्ण पारमहंस्य ज्ञान-सुधा-सरिताकी बाढ़ आ रही है-
'यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते ।'
भगवानके मधुरतम प्रेम-रसका छलकता हुआ सागर है-श्रीमद्भागवत। इसीसे भावुक भक्तगण इसमें सदा अवगाहन करते हैं। परम मधुर भगवद्रससे भरा हुआ 'स्वादु- स्वादु पदे-पदे' ऐसा ग्रन्थ बस, यह एक ही है। इसकी कहीं तुलना नहीं है। विद्याका तो पह भण्डार ही है। 'विद्या भागवतावधिः प्रसिद्ध है। इस 'परमहंससंहिता' का यथार्थ आनन्द तो उन्हीं सौभाग्यशाली भक्तोंको किसी सीमातक मिल सकता है, जो हृदयकी सच्ची लगनके साथ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक केवल 'भगवत्प्रेमकी प्राप्ति के लिये ही इसका पारायण करते हैं। यों तो श्रीमद्भागवत आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है, इसके पारायणसे लौकिक-पारलौकिक सभी प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसमें कई प्रकारके अमोध प्रयोगोंके उल्लेख हैं-जैसे 'नारायण-कवच' (स्क० ६ अ० ८) से समस्त विघ्नोंका नाश तथा विजय, आरोग्य और ऐश्वर्यकी प्राप्तिः 'पुंसवन-व्रत' (स्क० ६ अ० १९) से समस्त कामनाओंकी पूर्ति; 'गजेन्द्रस्तवन' (स्क० ८ अ० ३) से ऋणसे मुक्ति, शत्रुसे छुटकारा और दुर्भाग्यका नाश, 'पयोव्रत' (स्क० ८ अ० १६) से मनोवांछित संतानकी प्राप्ति; 'सप्ताहश्रवण' या पारायणसे प्रेतत्यसे मुक्ति। इन सब साधनोंका भगवत्प्रेम या भगवत्प्राप्तिके लिये निष्कामभावसे प्रयोग किया जाय तो इनसे भगवत्प्राप्तिके पथमें बड़ी सहायता मिलती है। श्रीमद्भागवतके सेवनका यथार्थ आनन्द तो भगवत्प्रेमी पुरुषोंको ही प्राप्त होता है। जो लोग अपनी विद्या- बुद्धिका अभिमान छोड़कर और केवल भगवत्कृपाका आश्रय लेकर श्रीमद्भागवतका अध्ययन करते हैं, वे ही इसके भावोंको अपने-अपने अधिकारके अनुसार हृदयंगम कर सकते हैं ।
गीताप्रेसके द्वारा श्रीमद्भागवतके प्रकाशनका विचार लगभग चौबीस-पचीस वर्ष पहलेसे हो रहा था। परंतु कई कारणोंसे उसमें देर होती गयी। फिर पाठका प्रश्न आया। खोज आरम्भ हुई, टीकाओं और पुरानी प्रतियोंको देखा गया। अन्तमें पूज्यपाद गोलोकवासी श्रीमन्मध्यगीडसम्प्रदायाचार्य गोस्वामी श्रीदामोदरलालजी शास्त्री और गवर्नमेन्ट संस्कृत कॉलेजके भूतपूर्व प्रिसिपल परम श्रद्धेय विद्वद्वर डॉ० श्रीगोपीनाथजी कविराज, एम० ए० से परामर्श किया गया।
श्रीकविराज महोदयके परामर्श, प्रयत्न और परिश्रमसे काशीके सरकारी 'सरस्वती-भवन' पुस्तकालयमें सुरक्षित प्रायः आठ सौ वर्षकी पुरानी प्रति देखी गयी और गीताप्रेसके विद्वान् शास्त्रियोंके द्वारा उससे पाठ मिलाया गया। इसके लिये हम श्रद्धेय श्रीकविराजजीके हृदयसे कृतज्ञ हैं। इसके पाठनिर्णयमें मधुराके प्रसिद्ध वैष्णव विद्वान् श्रद्धेय पं० जवाहरलालजी चतुर्वेदीसे बड़ी सहायता मिली थी, एतदर्थ हम उनके कृतज्ञ है।
इसी समय श्रीमद्भागवतके अनुवादकी बात भी चली और मेरे अनुरोधसे प्रिय श्रीमुनिलालजी (वर्तमानमें श्रद्धेय स्वामी सनातनदेवजी) ने अनुवाद करना स्वीकार किया और भगवत्कृपासे उन्होंने सं० १९८९ के आषाढमें उसे पूरा कर दिया। उक्त अनुवादका संशोधन श्रीवल्लभसम्प्रदायके महान् विद्वान् गोलोकवासी श्रद्धेय देवर्षि पं० श्रीरमानाथजी भट्ट, अपने ही साथी पं० श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री और भाई हरिकृष्णदासजी गोयन्दकाके द्वारा करवाया गया। तदनन्तर संवत् १९९७ में श्रीमद्भागवतका अनुवादसहित पाठभेदकी पाद-टिप्पणियोंसे युक्त संस्करण दो खण्डोंमें प्रकाशित किया गया, जिसको भावुक पाठकोंने बहुत ही अपनाया। इसीके साथ-साथ मूल पाठका गुटका-संस्करण भी निकाला गया, जिसकी अबतक १,०८,२५० प्रतियाँ छप चुकी हैं। इसके अनन्तर संवत् १९९८ में 'कल्याण' का 'भागवताङ्क' प्रकाशित किया गया।
इसमें अनुवादकी शैली कुछ बदल दी गयी। इस अनुवादका अधिकांश हमारे अपने ही पं० श्रीशान्तनुविहारीजी द्विवेदी (वर्तमानमें श्रद्धेय स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी सरस्वती महाराज)- ने किया। कुछ श्रीमुनिलालजी तथा पं श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्रीने भी किया। फिर द्वितीय महायुद्धके कारण कई तरहकी अड़चनें आ गयीं। श्रीमद्भागवतके ये दोनों खण्ड और 'श्रीभागवताङ्क' दोनों ही अप्राप्य हो गये। पुनः प्रकाशनकी बात बराबर चलती रही, पर कुछ-न-कुछ अड़चने आती ही रहीं।
'भागवताङ्क' वाली नयी शैलीके अनुसार अनुवादमें संशोधन करना हमारे पं० श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी, एम० ए०, शास्त्रीने आरम्भ भी किया। परंतु अन्यान्य कार्योंमें अत्यधिक व्यस्त रहनेके कारण उनसे वह कार्य आगे नहीं बढ़ सका। गत फाल्गुनमें श्रद्धेय स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज गोरखपुर पधारे, यों ही प्रसंगवश बात चल गयी और उन्होंने कृपापूर्वक इस कामको करना स्वीकार कर कर लिया। तदनुसार कार्य आरम्भ हो गया और भगवत्कृपासे अब यह छपकर पाठकोंके सामने प्रस्तुत है।
श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज महीनोंतक लगातार अधक परिश्रम करके यह कार्य नहीं करते तो आज इस रूपमें इसका प्रकाशित होना सम्भव नहीं था। इसलिये हमलोग तो स्वामीजी महाराजके कृतज्ञ हैं ही, भागवतके प्रेमी पाठकोंको भी उनका कृतज्ञ होना चाहिये