श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के दसवे श्लोक में भगवान् ने कहा है-
'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।।'
अर्थात् परमपिता परमात्मा प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के आदिकाल में प्रजाओं को यज्ञों के साथ उत्पन्न कर कहा था कि यज्ञ के द्वारा ही सृष्टि का विस्तार करो क्योंकि यज्ञ ही आप सब की सकल कामनाओं को देनेवाला है। अतः शरीर की उत्पत्ति केलिये स्त्री पुरुष सम्बन्ध, इसका संपूर्ण जीवनकाल, अन्त्येष्टि कर्म आदि को उपनिषदों में अग्निहोत्र कर्म कहा गया है।
हमारा श्वास जो चल रहा है, एतदर्थ जो हम भोजन करते हैं, थकान दूर करने अथवा विश्रान्ति हेतु जो हम सोते हैं इत्यादि सकल क्रिया कलाप यज्ञ ही है। अतः किसी भी अनुष्ठान को यज्ञ द्वारा ही पूर्णता प्रदान किया जाता है। नवरात्र भी एक अनुष्ठान है, इसलिये इसकी भी पूर्णता केलिये अन्त में यज्ञ यानि याग और होम किया जाता है। मीमांसा दर्शन में कहा गया है कि
'देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यागः, त्यक्तद्रव्यस्य अग्नौ प्रक्षेपो होमः ।'
अर्थात् देवता को उद्देश्य कर अथवा लक्षित कर द्रव्य के त्यागने को याग कहते हैं और उस त्यक्त द्रव्य को उसी देवता केलिये अग्नि में प्रक्षेप करने को होम कहते हैं। अतः होम पर्यन्त कर्म का विधि को इस ग्रन्थ में दर्शाया गया है।
मानवमात्र के इहलोक व परलोक में सुखप्राप्ति और जीवन के मुख्य लक्ष्य मोक्षप्राप्ति हेतु ऋषिमुनियों ने निष्काम कर्मयोग, निष्काम भक्तियोग और ज्ञानयोग को ही साधना के रूप में विधान किया है। उक्त त्रिविध साधना की निर्विघ्नता पूर्वक सफलता केलिये वैदिक सनातन धर्म में पंचमहाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) के अधिष्ठातृदेवचताओं को पंचदेव कहा है-
गणेश, विष्णु, सूर्य, शक्ति और शिव। प्रस्तुत ग्रन्थ शक्ति को प्रधान देवता, शेष चार को अधिदेवता और अन्यों को प्रत्यधिदेवता मानकर पूजा पाठ व उपासना करनेवाले शाक्त संप्रदाय के अनुसार है। पूर्व में मुद्रित शिवपूजापद्धतिप्रकाशः, पूर्णिका सहित श्रीयन्त्रपूजापद्धतिप्रकाशः और वास्तुपूजापद्धतिप्रकाशः को पढ़कर पाठकों, जिज्ञासुओं, कर्मकाण्डी ब्राह्मणों एवं उपासकों ने श्रीदुर्गापूजापद्धतिप्रकाशः, सप्तशतीपाठविधिः और श्रीदुर्गासप्तशतीहोमविधिः को भी प्रकाशित करने केलिये बार-बार निवेदन किया।
लेकिन गीता प्रेस, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश द्वारा मुद्रित 'दुर्गासप्तसती' में संकलित पाठविधिः निर्दोष व पर्याप्त है। इसलिये हमने 'सप्तशतीपाठविधिः' को मुद्रित न करने का निर्णय लिया है। शेष दोनों ग्रन्थों को यानि 'श्रीदुर्गापूजापद्धतिप्रकाशः' और 'श्रीदुर्गासप्तशतीहोमविधिः' को क्रमशः मुद्रित करने का निश्चय किया है। अतः पूर्वोक्त उन सब की प्रेरणा से सर्वप्रथम 'श्रीदुर्गापूजापद्धतिप्रकाशः' का संकलन कर मुद्रित किया गया है।
साथ ही साथ 'श्रीदुर्गासप्तशतीहोमविधिः' का भी संकलन किया हैं, जिसमें पूर्ववत् दक्षिण व उत्तर भारत के अनेकों पण्डितों एवं विद्वानों ने सहयोग दिया है, विशेषतः पं. ज्योतिप्रसाद उनियालजी ने तो संशोधन कार्य में भी पूर्ण सहयोग दिया है जो कि अविस्मरणीय ही नहीं अपितु अत्यन्त प्रशंसनीय भी है। इस ग्रन्थ रचना की सफलता में अनेक प्रकार से सहयोग देनेवाले सभी सज्जनों का मैं हृदय से अत्यन्त आभार व्यक्त करता हूँ। पूर्ववत् इस ग्रन्थ से सभी को मार्गदर्शन मिले और सभी लाभान्वित हो ऐसी माँ भगवती से प्रार्थना करते हुये माँ के चरणों में इसे सादर समर्पित करता हैं।
सभी की आत्मा
स्वामी शान्तिधर्मानन्द सरस्वती