श्रीगणेशाय नमः
श्रीपतिनाभिप्रभवः कनकच्छायः प्रयच्छतु शिवं वः । कल्पाविसृष्टिहेतुः पद्मासनसंश्रितो देवः ॥१॥
- अन्वयार्थौं - (पद्मासनसंश्रितो देवः ब्रह्मा वः शिवं प्रयच्छतु) कमलासनपै स्थित जो देव अर्थात् आदिदेव ब्रह्मा सो तुमको कल्याण देओ (कथंभूतो देवः-श्रीपतिनाभिप्रभवः) कैसे हैं वह देव कि, श्रीपति जो हैं विष्णु तिनकी नाभिकमल से उत्पन्न (पुनः कथंभूतः कनकच्छायः) फिर कैसे हैं वह देव कि, सुवर्ण की सी है कांति जिनकी (पुनः कथंभूतः देवः-कल्पादिसृष्टिहेतुः) फिर कैसे हैं वह देव कि, कल्प के आदि में जो सृष्टि हुई उसके कारण हैं।।१।।
स्फुरदेकलक्षणमपि त्रैलोक्यलक्षणं बपुर्यस्याः । अविकलशब्दब्रह्म ब्राह्मी सा देवता जयति ॥२॥
अन्वयार्थों - (सा ब्राह्मी देवता जयति) सो ब्राह्मी देवता अर्थात् सरस्वती देवी सर्वोत्कर्षकरिके जयवती हो अर्थात् जयकारी हो (कथंभूता सा ब्राह्मी देवता-अविकलशब्दब्रह्म स्फुरदेकलक्षणमपि) सो कौनसी देवी है कि, विकलतारहित शब्दरूप ब्रह्म और देदीप्यमान है मुख्यलक्षण जिसमें ऐसा (यस्याः त्रैलोक्यलक्षणं वपुः) जिसका त्रैलोक्यरूप लक्षण शरीर है।।२।।
पुरुषोत्तमस्य लक्ष्म्या समं निजोत्सङ्गमधिशयानस्य । शुभलक्षणानि दृष्ट्वा क्षणं समुद्रः पुरा दध्यौ ।।३।।
अन्वयार्थों - (समुद्रः पुरुषोत्तमस्य शुभलक्षणानि दृष्ट्वा क्षणं पुरा दध्यौ) समुद्र जो है सो पुरुषोत्तम कहिये विष्णु तिनके शुभलक्षणों को देख करके क्षणमात्र पहिले ध्यान किया (कथंभूतस्य पुरुषोत्तमस्य-लक्ष्म्या समं निजोत्संगमधिशयानस्य) सामुद्रिकशास्त्रम्
कैसे हैं वह पुरुषोत्तम कि लक्ष्मी के साथ अपनी गोद में शेष शय्या पर शयन करते हैं।॥३॥
भोक्ता त्रिखण्डभूमेर्भङ्क्ता मधुकैटभादिदैत्यानाम् । रूपबशीकृतयाऽसौ क्षणमपि न वियुज्यते लक्ष्म्या ॥४॥
अन्वयार्थौं - (त्रिखण्डभूमेः भोक्ता) तीन खण्ड पृथ्वी उसका भोगनेवाला (च पुनः मधुकैटभादिदैत्यानां भक्ता) और मधुकैटभ आदि दैत्यों के मारनेवाला (असौ रूपवशीकृतया लक्ष्म्या क्षणमपि न वियुज्यते) ऐसे यह विष्णु रूपकरिके वश भई लक्ष्मी तिससे क्षणमात्र भी अलग नहीं होते हैं।।४।।
इहेक्षणलक्षणयुतं तदपरमपि हन्त भजति श्रीः । विपरीतलक्षणयुतस्त्रिजगत्यपि किङ्करो भवति ॥५॥
अन्वयार्थों- (इह ईक्षणलक्षणयुतं तत् अपरम् अपि हन्त श्रीः भजति) इस लोकमें नेत्रों को लक्षणयुक्त अन्य पुरुष को भी यह हर्ष की बात है कि, उसको लक्ष्मीजी भजती हैं अर्थात् उसके भी निवास करती हैं और (च पुनः-विपरीतलक्षणयुतः पुरुष त्रिजगति अपि किंकरः भवति) जो विपरीत लक्षण अर्थात् अशुभलक्षणयुक्त जो पुरुष है सो तीनों लोको में दास होता है।।५।।
अथ चेह मध्यलोके सकलेष्वपि सत्सु जन्तुजातेषु । मर्त्यः प्रधानजातो यदाख्यया मर्त्यलोकोऽयम् ।।६।।
अन्वयार्थों- (अथ च इह मध्यलोके सकलेषु अपि जन्तुजातेषु सत्सु अयं मर्त्यः प्रधानजातः) इसके अनन्तर इस मध्यलोक में सब जीवजंतुओं के समूह होते संते मनुष्य प्रधान हुआ और (याख्यया अयं मर्त्यलोकः प्रसिद्धः) जिसके नामकरिके यह मर्त्यलोक विख्यात है।।६।।
उत्पत्तिः स्त्रीमूला तस्या अपि ततः प्रधानमेवापि । क्रियते लक्षणमतयोर्यदि त देह स्याज्जनोपकृतिः ।।७।।
अन्वयार्थों- (उत्पत्तिः स्त्रीमूला ततः तस्या अपि एषा अपि प्रधानम्) कि है मूल अर्थात् जड़ उत्पत्ति जिसकी उससे यह भी प्रधान है (यदि अनयोः लक्षणं क्रियते तत् इह जनोपकृतिः स्यात्) जो इन दोनों के लक्षण करे जायें तो इस लोक में सबका उपकार होय ।।७।
इत्यं विचिन्त्य सुवरे स्वहृदि समुद्रेण सम्यगवगम्य । नृस्त्रीलक्षणशास्त्रं रचयाञ्चक्के तदादि तथा ॥८॥
अन्वयाथौ - (समुद्रेण इत्थं सुबरे स्वहृदि विचिन्त्य सम्यक् च अवगम्य) समुद्र ने श्रेष्ठ अपने हृदय में विचार ऐसा करके और अच्छे प्रकार समझिके (नृस्त्रीलक्षणशास्त्रं तथा तदादि रचयांचक्रे) मनुष्य और स्त्री के हैं लक्षण जिसमें ऐसा शास्त्र है और आदि में मनुष्य के हैं लक्षण जिसमें सो रचा अर्थात् बनाया।।८।।
तदापि नारदलक्षकवराहमाण्डव्यवण्मुखप्रमुखैः 1 रचितं क्वचित्प्रसङ्गात्पुरुषस्त्रीलक्षणं किश्चित् ।।९।।
अन्वयार्थों - (नारदलक्षकवराहमाण्डव्ययण्मुखप्रमुतैः प्रसङ्गात पुरुषस्त्रीलक्षणं किंचित् क्वचित् रचितम् (तब भी नारद मुनि जाननेवाले और बराह मांडव्य स्वामिकार्तिक आदिकों ने प्रसङ्ग से पुरुष और स्त्री के लक्षणों को करके युक्त कुछ कुछ शास्त्र कहीं बनाया ।।९।।
तदनन्तरमिह भुवने ख्यातं स्त्रीपुंसलक्षणज्ञानम् । दुर्बोधं तन्महदिति जडमतिभिः खण्डतां नीतम् ।।१०।।
अन्वयार्थों - (तदनन्तरम् इह भुवने स्त्रीपुंसलक्षणज्ञानं ख्यातम् अतिदुर्बोधं तत् महत् जडमतिभिः खण्डतां नीतम्) ताके पीछे इस लोकमें स्त्रीपुरुष के लक्षणों का ज्ञान प्रगट हुआ। उससे वह बड़े जानके के कठिन होने से जड़बुद्धियों ने खंडित कर दिया।।१०।।
विद्यन्ते श्रीभोजनृपसुमन्तप्रभृतीनामग्रतोऽपि सामुद्रिकशास्त्राणि प्रायो गहनानि तानि परम् ॥११॥
अन्वयार्थों - (श्रीभोजनृपसुमन्तप्रभृतीनाम् अपि अग्रतः सामुद्रिक शास्त्राणि विद्यन्ते) श्रीमान् भोज और सुमन्त आदि राजाओं के आगे भी सामुद्रिक शास्त्र थे (प्रायः तानि परं गहनानि सन्ति) परन्तु वे बहुधाकरिके अत्यन्त कठिन और गूढ़ थे।॥११॥
खण्डीकृतानि च पुनः पिण्डीकृत्याखिलानि तान्यधुना । सामुद्रिकं शुभाशुभमिह किंचिद्वच्मि संक्षेपात् ॥१२॥
अन्वयार्थी - (पुनः खंडीकृतानि अखिलानि तानि पिण्डीकृत्य इह शुभाशुभं सामुद्रिकं किंचित् संक्षेपात् अधुना वच्मि) फिर वे जो संपूर्ण खंडित हो गये थे तिन्हें इकट्ठे करके इस लोक में शुभ और अशुभ लक्षणों का जो सामुद्रिक शास्त्र उसे संक्षेप से कुछ एक अब कहता हूँ।।१२।।
सामुद्रमङ्गलक्षणमिति सामुद्रिकमिदं हि देहवताम् । प्रथममवाप्य समुद्रः कृतवानिति कीर्त्यते कृतिभिः ॥१३॥
अन्वयार्थों - (समुद्रः प्रथमम् अवाप्य इदं सामुद्रिकं देहवतां शुभाशुभम् अङ्गलक्षणम् इदं शास्त्र कृतवान् तत् अधुना कृतिभिः कीर्त्यते) समुद्र ने पहिले मनुष्यों के अंग का शुभाशुभ लक्षण इस सामुद्रिक शास्त्र को किया तो अब उसी को पण्डित कहते हैं।।१३।।
उरू जठरमुरः स्थलबाहुयुगं पृष्ठमुत्तमाङ्ग च । इत्यष्टाङ्गानि नृणां भवन्ति शेषाण्युपाङ्गानि ॥१४।।
अन्वयार्थों- (उरु-जठरम्-उर:स्थलं-बाहुर्युगं-पृष्ठम्, उत्तमाङ्ग च नृणाम् इति अष्टाङ्गानि भवन्ति तथा शेषाणि उपाङ्गानि भवन्ति) दो जांघ-पेट-छाती, दो भुजा, पीठ, शीश मनुष्यों के ये आठ अंग मुख्य हैं जिनमें और बाकी उपअंग है अर्थात् छोटे अंग हैं।।१४।।
पूर्वभवान्तरजनितं शुभशुभमिहापि लक्ष्यते येन । पुरुषस्त्रीणां सद्भिर्निगद्यते लक्षणं तदिह ॥१५॥
अन्वयार्थों - (येन पूर्वभवान्तरजनितं शुभाशुभलक्षणम् इह अपि लक्ष्यते तत् इह पुरुषस्त्रीणां लक्षणं सन्द्भिः निगद्यते) जिससे पहिले जन्म के उत्पन्न शुभाशुभ लक्षण जो देखे जायें सो ही पुरुष स्त्रियों के लक्षण पण्डितों करिके कहे जाते हैं।॥१५॥
देवतां तद्वाह्याभ्यन्तरभेदेन जायते द्विविधम् । वर्णस्वरादि बाह्यं पुनरन्तः प्रकृतिसत्त्वादि ॥१६॥
अन्वयार्थों- (देवतां तत् लक्षणं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं जायते वर्णस्वरादि बाह्य पुनः प्रकृतिसत्त्वादि अन्तः) शरीर के वे ही लक्षण बाहर और भीतर के भेद से दो प्रकार के होते हैं सो वर्ण और स्वर को आदि लेकर बाह्य लक्षण कहाते हैं और प्रकृति सत्त्व आदि वे अन्तर के लक्षण हैं।।१६।।
आद्यं तदाश्रयतया निखिलेष्वपि लक्षणेषु शारीरम् । मनुजानां तस्मादिह वक्ष्यामि तदेव मुख्यतया ॥१७॥
अन्वयार्थौं - (निखिलेषु अपि लक्षणेषु तदाथयतया आद्यं शारीरं तस्मात् इह मनुजानां मुख्यतया तदेव वक्ष्यामि) संपूर्ण लक्षणों में उसके आश्रय करिके आदि में शरीर से ही सबंध रखता है उससे मनुष्यों के मुख्य उसी शरीर के लक्षण कहता हूं।।१७।।
शरीरावर्तगतिच्छायास्वरवर्णवर्णगन्धसत्त्वानिइत्यष्टविधं हयवत्पुरुषस्त्रीलक्षणं भवति ॥१८॥
अन्वयार्थी - (शरीरावर्त गतिच्छायास्वर वर्णवर्णगन्धसत्त्वानि हयवत् इति अष्टविधं पुरुषस्त्रीलक्षणं भवति) शरीर में आवर्त कहिये, भौंरी ? गति कहिये चाल २ छाया कहिये कान्ति ३ स्वर कहिये बोलना ४ वर्ण कहिये रंग ५ वर्ण कहिये अक्षर ६ गंध कहिये सुगंध दुर्गंध ७ सत्त्व कहिये पराक्रम ८ इस प्रकार जैसे आठ प्रकार के लक्षण घोड़े के होते हैं तैसे ही पुरुष और स्त्रियों के भी होते हैं।।१८।।
इह तावदूर्ध्वमूलो नरकल्पतरुर्भवेदधः शाखः । पावतलात्तदिदानीं शारीरं लक्षणं बक्ये ॥१९॥
अन्वयार्थी - (इह तावत् उर्ध्वमूलः नरकल्परुः अधः शाखः भवेत् तत् इदानीं पादतलात् शारीरं लक्षणं वक्ष्ये) इस ग्रंथ में उर्ध्व से मूल तक मनुष्य का शरीर कल्पवृक्षके समान नीची शाखावाला है सो पांव के तलुवा अर्थात् नीचे से शरीररूप वृक्ष के लक्षणों को कहता हूं।।१९।।
आदौ पदस्य तलमथ रेखांगुष्ठांगुलीनखं पृष्ठम् । गुल्फौ पाली जङ्घायुगलं रोमाणि जानुयुगम् ॥२०॥
अन्वयार्थों - इसके आदि में भांव का तलुआ और रेखा अंगूठा अंगुली नख पांव की पीठ गुल्फौ अर्थात् टखने पाली अर्थात् गढेले जंगायुगलम् अर्थात् दोनों पिंडली रोमाणि अर्थात् रोंगटे जानुयुगम् अर्थात् दोनों जाँघ जानो।।२०।।
उरू तथा कटितटस्फिग्युग्मं तदनु पायुरथ मुष्कौ । शिश्नस्तन्मणिरेतोमूत्रं शोणितमथो बस्तिः ॥२१॥
अन्वयार्थों-ऊरू दोनों जांघ। कटितट कमर का किनारा। स्फिग्युग्मं दोनों कोख। तदनु पायुः-तिसके पीछे गुदा। मुष्कौ-अंडकोश। शिश्नः- इन्द्री। तन्मणिः- इन्द्री की सुपारी। रेतः- धातु मूत्र। शोणितम् रुधिर। बस्ति पेडू जानो।।२१।।
नाभिः कुक्षी पार्श्वे जठरं मध्यं ततश्व वलयोस्मिन् । हृदयमुरः कुचचूचुकयुग्मं जत्रुद्वयं स्कन्धौ ॥२२॥
अन्वयार्थों-नाभिः ट्रेंडी। कुक्षी दोनों कोख। पार्श्वे -पांसू । जठरं मध्यं पेट का बीच। वलयः- पेट की सलवट। हृदयं-छाती। उर-कलेजा। कुच-बूंची। चूचुक्युग्मं दोनों चूंचीको नोकें। जत्रुद्वयं-कंधे की दोनों हसली। स्कन्धौ-दोनों कंधा जानो।॥२२॥