'पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्र: ' नरकसे जो त्राण (रक्षा) करता है, वही पुत्र है। सामान्यतः जीवसे इस जीवनमें पाप और पुण्य दोनों होते हैं, पुण्यका फल है-स्वर्ग और पापका फल है-नरक नरकमें पापीको घोर यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। स्वर्ग-नरक भोगनेके बाद जीव पुनः अपने कर्मोके अनुसार चौरासी लाख योनियोंमें भटकने लगता है। पुण्यात्मा मनुष्ययोनि अथवा देवयोनि प्राप्त करते हैं पापात्मा पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि तिर्यक् एवं अन्यान्य निम्न योनियाँ प्राप्त करते हैं। अतः अपने शास्त्रोंके अनुसार पुत्र-पौत्रादिका यह कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजोंके निमित्त श्रद्धापूर्वक कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें, जिससे उन मृत प्राणियोंको परलोकमें अथवा अन्य योनियों में भी सुखकी प्राप्ति हो सके इसलिये भारतीय संस्कृति तथा सनातनधर्ममें पितृ ऋणसे मुक्त होनेके लिये अपने माता- पिता तथा परिवारके मृत प्राणियोंके निमित्त श्राद्ध करनेकी अनिवार्य आवश्यकता बतायी गयी है। श्राद्धकर्मको पितृ- कर्म भी कहते हैं। पितृ कर्मसे तात्पर्य पितृ पूजासे है।
पुत्रके लिये शास्त्रोंमें तीन बातें मुख्य रूपसे बतायी गयी हैं-
जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात्। गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ॥ श्रीभाग ६ । १५
अर्थात्-
(१) जीवित अवस्था में माता-पिताकी आज्ञा का पालन करना।
(२) उनकी मृत्युके अनन्तर श्रद्धापूर्वक श्रद्धमें अपनी सामर्थ्यानुसार खूब भोजन कराना।
(३) उनके निमित्त गयामें पिण्डदान करना। ये तीन बातें पूरी करनेवाले पुत्रका पुत्रत्व सार्थक है।
सामान्यतः कई लोग माता-पिताकी मृत्युके उपरान्त उनका और्ध्वदेहिक संस्कार, दशगात्र तथा सपिण्डन आदि कार्य तो करते हैं, परंतु आलस्य और प्रमादवश गया जाकर पिण्डदान करनेका महत्त्व नहीं समझते। कभी-कभी कुछ लोग भयवश गया श्राद्धके लिये जाते हैं, किसीको संतान नहीं होती है अथवा कोई बहुत विपत्ति आ जाती है, जिसके लिये उन्हें बताया जाता है कि पितृ-दोषके कारण यह सब आपत्तियाँ हैं। गयामें श्राद्ध करनेसे इनका निवारण हो सकता है; तब वे अपनी कामनाकी पूर्तिके निमित्त गया श्राद्धके लिये जाते हैं। इस निमित्तसे भी गयामें जाकर श्राद्ध करना उत्तम है, परंतु वास्तवमें तो प्रत्येक व्यक्तिको अपने अनिवार्य कर्तव्यको दृष्टिसे अपने माता- पिताका गया जाकर श्राद्ध करना चाहिये, जिससे स्वाभाविक रूपसे वे पितृ-दोषसे मुक्त रहेंगे।
पितृ ऋणसे मुक्त होनेके लिये जैसे माता-पिता तथा पूर्वजोंका वार्षिक श्राद्ध आदि करना आवश्यक है, उससे कम आवश्यक गया श्राद्ध करना नहीं है। अतः माता-पिता तथा पूर्वजोंके कल्याणके लिये गया जाकर पिण्डदान अवश्य करना चाहिये। गयामें माता-पिताके साथ अपने पितृकुल, मातृकुल, निकटतम सम्बन्धीगण, इष्टमित्र, पुराने सेवक तथा आश्रितजन सबको पिण्ड देनेका विधान है। गयामें जिनके निमित्त पिण्ड प्रदान किया जाता है, उनकी तो उत्तम गति होती ही है, स्वयं कर्ता तथा उसके सहयोगी भाई बन्धुजनोंका भी कल्याण होता है। श्राद्धकर्ता भी पितृ ऋणसे मुक्त हो जाता है-
'निष्कृतिः श्राद्धकर्तॄणां ब्रह्मणा गीयते पुरा॥' ( वायुपु० ११०।१)
इस प्रकार शास्त्रोंमें गयामें पिण्डदान करनेकी अनिवार्य तथा अतुलित महिमा बतायी गयी है। कुछ दिनों पूर्व गीताप्रेसद्वारा 'अन्त्यकर्म श्राद्धप्रकाश' पुस्तकका प्रकाशन किया गया था, जिसका उद्देश्य यह था कि सर्वसाधारणको शास्त्रानुसार अन्तिम समयके कृत्य, श्राद्धकी प्रक्रिया और इसके विधि-विधानकी सरल भाषामें सामान्य जानकारी हो सके, इसके साथ ही साधारण विद्वान् पण्डित भी, जो इस विधासे पूर्ण परिचित नहीं हैं, वे भी इस ग्रन्थके आधारपर आवश्यकतानुसार श्राद्धादिकृत्य कराने में सक्षम हो जायें।
श्रद्धालुजनों का यह आग्रह था कि इसी प्रकारकी एक पुस्तक गया श्राद्धपद्धतिके रूपमें गीताप्रेसद्वारा प्रकाशित होनी चाहिये। भगवत्कृपासे यह कार्य सम्पन्न हो सका है।
इस पुस्तकके सम्पादनमें प्रयागके हरीराम गोपालकृष्ण सनातनधर्म संस्कृत महाविद्यालयके अवकाशप्राप्त प्राचार्य पं० श्रीरामकृष्णजी शास्त्रीका निष्कामभावसे पूर्ण योगदान प्राप्त हुआ है। इनके अथक परिश्रम एवं पूर्ण तत्परतासे ही इस रूपमें यह पुस्तक तैयार हो सकी इसके लिये हम उनके प्रति हृदयसे आभार व्यक्त करते हैं। इस पुस्तककी विशेषता यह है कि इसमें संकल्पयोजना तथा मन्त्रभाग संस्कृतमें पूर्णरूपसे लिखा गया है तथा क्रिया आदिका संकेत भी स्पष्टतासे सरल हिन्दी भाषामें कर दिया गया है, जिससे कार्य सम्पादनमें किसी [९]
प्रकारकी कठिनाईका अनुभव न हो तथा साधारण शिक्षित व्यक्ति भी इस ग्रन्थके अनुसार गया श्राद्धका कार्य सांगोपांगरूपमें सम्पन्न कर सके।
इस ग्रन्थमें गयामाहात्म्य - महिमा, गयाश्राद्धका काल, गयायात्रासम्बन्धी जाननेयोग्य आवश्यक बातें, श्राद्धसे सम्बन्धित प्रमाणोंका संकलन, यात्राकी प्रक्रिया, गयामें होनेवाले श्राद्धका क्रम, तर्पणप्रयोग, पार्वणश्राद्ध, तीर्थश्राद्ध तथा श्राद्धकी पिण्डदानात्मक एवं एकपिण्डदानात्मक आदि प्रक्रियाओंको विधिपूर्वक सांगोपांगरूपमें प्रस्तुत करनेका प्रयास किया गया है।
श्राद्धकी क्रियाएँ इतनी सूक्ष्म हैं कि इन्हें सम्पन्न करनेमें अत्यधिक सावधानीकी आवश्यकता है। इसके लिये इससे सम्बन्धित बातोंकी जानकारी होना भी परम आवश्यक है। इस दृष्टिसे गया श्राद्धसे सम्बन्धित आवश्यक बातें आगे लिखी जा रही हैं, जो सभीके लिये उपादेय हैं। अतः इन्हें अवश्य पढ़ना चाहिये । आशा है सर्वसाधारण जन इस पुस्तकसे लाभान्वित होंगे।
इस घोर कलिकालमें कर्मोंके लोप होनेसे यदि इस ग्रन्थके द्वारा भगवत्कृपासे किंचित् रक्षा हो सकी तथा सर्वसाधारण जनोंके कल्याणमें यह निमित्त बन सका तो प्रस्तुत प्रकाशन सार्थक होगा।
-राधेश्याम खेमका