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काश्यप संहिता हिन्दी व्याख्या सहित-  Kashyapa Sanhita [PDF]

काश्यप संहिता हिन्दी व्याख्या सहित- Kashyapa Sanhita [PDF] Upayogi Books

by Chaukhamba Sanskrita Series
(0 Reviews) December 15, 2023
Guru parampara

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December 15, 2023
Writer/Publiser
Chaukhamba Sanskrita Series
Categories
Ayurveda
Language
Hindi Sanskrit
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काश्यप संहिता हिन्दी व्याख्या सहित

काश्यप संहिता हिन्दी व्याख्या सहित

प्रस्तावना

पाठकों के सम्मुख आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ काश्यपसंहिता का हिन्दी अनुवाद उपस्थित करते हुए मुझे प्रसन्नता है ।

अनुत्रादक के सामने प्रधान दृष्टिकोण ग्रन्थ के मूल विषयको स्पष्ट करना होता है। साथ ही विषय का व्यतिक्रम न हो यह भी उसे ध्यान में रखना पड़ता है। इन दोनों बातों का सामञ्जस्य रखने का मैंने अपनी ओर से यथाशक्ति प्रयन्न किया है। काश्यपसंहिता आयुर्वेद का एक अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ है। यह चरक तथा सुश्रुत का ही समकक्ष माना जाता है। इसकी उपलब्धि नेपाल में अभीतक खण्डितरूप में ही हुई है। कालक्रम से हमारे अनेक प्राचीन आयुर्वेदिक तथा अन्य ग्रन्थ भी विलुप्त हो चुके हैं।

इन विलुप्त ग्रन्थों में से जो अनेक ग्रन्थ समय २ पर उपलब्ध हुए हैं उन्हीं में से काश्यपसंहिता भी एक है। यद्यपि यह ग्रन्थ अभी तक पूर्णरूप से नहीं मिला है तथापि जर्जरित एवं खण्डित रूप में उपलब्ध होने पर भी यह हमारे महान् आयुर्वेद कोप की अमूल्य निधि समझी जानी चाहिये तथा समय प्रवाह से भविष्य में इस ग्रन्थ के अवशिष्ट अंशों की उपलब्धि की आशा भी रखनी चाहिये ।


इस ग्रन्थ का मुख्य विपय कौमारभृत्य है अर्थात् इसमें बालकों के रोग, उनका पालन पोषण, स्तन्य- शोधन एवं धात्रीचिकित्सा आदि का विशद वर्णन मिलता है। कौमारभृत्य अष्टाङ्ग आयुर्वेद का एक अवि- भाज्य अङ्ग है।

इसके अभाव में अष्टाङ्ग आयुर्वेद पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार आयुर्वेद के आठ अङ्गों में से इस समय शालाक्य, विप, तथा भूतविद्या आदि केवल नाममात्र को ही अवशिष्ट हैं उसी प्रकार अष्टाङ्ग आयुर्वेद का कौमारभृत्य सम्बन्धी विषय भी इस ग्रन्थ के उपलब्ध होने से पूर्वतक केवल नाममात्र को ही था।

इस कौमारभृत्य का प्रधान आचार्य जीवक माना जाता है। अभी तक इस जीवक का कोई भी विशेष परिचय हमें उपलब्ध नहीं था। इस ग्रन्थ के उपलब्ध हो जाने से जीवक के विषय में भी हमें अनेक प्रकार का ज्ञान मिल जाता है। इससे उसके पिता, जन्मस्थान एवं आचार्य का परिचय मिलता है। कौमार- भृत्य के प्रधान आचार्य जीवक, तथा इस संहिता के विषय में उपोद्घात में विशेष वर्णन किया गया है।

इसके विषय में मुझे पुनः विशेष कुछ नहीं कहना है। इस ग्रन्थ में बालकों के विषय में अनेक ऐसी बातें दी हुई हैं जो अन्य प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थ में साधारणतया देखने को नहीं मिलती हैं। उदाहरण के लिये बालकों के लेहन, सन्निपात, फक्करोग आदि का इसमें विशेष वर्णन किया गया है। बालकों के दन्तोत्पत्ति का इतना विशद वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। स्वेदन के प्रकरण में अत्यन्त छोटे बालकों के लिये अन्य स्वेदों के साथ विशेपरूप से हस्तस्वेद का विधान दिया गया है।

हस्तस्त्रेद से अभिप्राय हाथों को गर्म करके उनके द्वारा स्वेदन देने से है। छोटे बालक अत्यन्त नाजुक होते हैं। थोड़ी सी भी अधिक गरमी से बालकों के उष्णता के केन्द्र विचलित हो जाते हैं इस लिये उन्हें स्वेदन अत्यन्त सावधानी से देने की आवश्यकता होती है। हस्तस्त्रेद से यह भय नहीं रहता, इसमें हाथों द्वारा उष्णता का नियन्त्रण सुविधापूर्वक किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में संक्षेप में दिये हुए वेदनाध्याय, लक्षणाध्याय, बालग्रह आदि का इसमें विशद वर्णन किया गया है। रक्तगुल्म तथा गर्भ में प्रायः भ्रम उत्पन्न हो जाता है। इनकी भेदक परीक्षा इस संहिता में अत्यन्त विस्तार से दी गई है। विषम ज्वर के वेगों के विषय में यहां एक बिलकुल नवीन शंका उपस्थित करके उसका युक्ति पूर्वक बड़ा सुन्दर उत्तर दिया गया है।

विषमज्वर के अन्येद्युष्क, तृतीयक तथा चतुर्थक के समान अन्य भेद क्यों नहीं होते ? अर्थात् जिस प्रकार विषमज्वर प्रति- दिन, तीसरे दिन एवं चौथे दिन होता है उसी प्रकार पांचवें तथा छठें दिन भी इसके वेग क्यों नहीं होते ? इसका उत्तर दिया है कि इस विषमज्वर के आमाशय, छाती, कण्ठ तथा सिर ये चार ही स्थान हैं। इनके अतिरिक्त इसका कोई स्थान नहीं है। इसलिये अन्य स्थानाभात्र से इसके अन्य वेग नहीं होते हैं।

इन उपर्युक्त स्थानों में से आमाशय में द.पों के पहुंचने पर उधर का वेग होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक दोप को पहुंचने में एक अहोरात्र लगता है अर्थान् अन्येद्यष्क का स्थान छाती है। छाती से आमाशय तक दोप के पहुंचने में एक अहोरात्र लगता है। इसलिये अन्येयुष्क का वेग २४ घंटे में होता है। तृतीयक का स्थान कण्ठ माना गया है। कण्ठ से छाती तक एक अहोरात्र तथा छाती से आमाशय तक पहुंचने में दूसरा अहोरात्र लगता है इसलिये तृतीयक का वेग तीसरे दिन होता है। इसी प्रकार चतुर्थक का स्थान सिर है।

उसे आमाशय तक पहुंचने में तीन अहोरात्र लगते हैं अर्थात् चतुर्थक का वेग चौथे दिन होता है। इनके अतिरिक्त विषमज्वर का कोई स्थान नहीं है इसलिये चौथे दिन के बाद इसका कोई वेग नहीं होता है। यह अत्यन्त युक्तिसंगत उत्तर दिया गया है। इसी प्रकार अन्य भी बहुत से नवीन विषय इस संहिता में दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार संपूर्ण दृष्टियों से कौमारभृत्य के विषय में यह एक पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ माना जा सकता है। अनेक वषों से मेरी इच्छा इसके अनुवाद करने की थी।

चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय के व्यवस्थापकों के सध्प्रयत्नों से उस इच्छा को पूर्ण करने का अवसर मुझे उपलब्ध हो गया। इस प्रन्थ के साथ राजगुरु हेमराज जी ने जो एक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण एवं सारगर्भित उपोद्वात लिख दिया है उससे तो इस प्रन्ध की उपादेयता और भी बढ़ गई है। इसमें आयुर्वेद का विस्तृत इतिहास एवं विकासकम दिया गया है तथा आयुर्वेद के प्रधान अन्यों एवं उनके आचार्यों का भी विस्तृत विवेचन किया गया है।

परन्तु यह उपोद्वात संस्कृत भाषा में लिखा होने से आयुर्वेद के अनेक ऐसे प्रेमी, जो संस्कृत से अनभिज्ञ हैं, इससे विशेष लाभ नहीं उठा पाते, इसी लिये इस संहिता के अनुवाद का प्रश्न जब मेरे सामने आया तो मूल ग्रन्थ के साथ २ उपोद्वात का अनुवाद करना भी मैंने आवश्यक समझा, इससे यद्यपि ग्रन्थ का कलेवर अवश्य बढ़ गया है परन्तु इससे इसकी उपयोगिता निर्विवाद बढ़ गई है।

पूज्य हेमराज जी ने सहर्ष अत्यन्त उदारतापूर्वक प्रकाशक को सानुवाद उपोद्वात छापने की स्वीकृति प्रदान करदी इसके लिये मैं तथा प्रकाशक उनके अत्यन्त आभारी हैं।

चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय के व्यवस्थापक श्री जयकृष्णदास शिदासजी गुप्त भी अत्यन्त धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस महान् अर्थ-संकट काल में भी आर्थिक लोलुपता से विरत होकर सेवाभाव से ही इस प्रन्ध का प्रकाशन कर आयुर्वेद जगत की एक महान क्षति की पूर्ति कर दी है।

श्री अत्रिदेव जी गुप्त का मैं अत्यन्त आभारी हूं उन्हीं की निरन्तर प्रेरणा का फल है कि मैं आप लोगों के सम्मुख इसका अनुवाद उपस्थित कर सका हूं, उनको मैं धन्यवाद तो नहीं दे सकता क्योंकि वे मेरे गुरु हैं।

काश्यपसंहिता का अनुबाद करना मेरे लिये सरल नहीं था क्योंकि यह एक अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें स्थान २ पर अनेक विषय एवं शब्द ऐसे आये हुए हैं जो बिलकुल असिद्ध एवं अस्पष्ट हैं। इनके अतिरिक्त सबसे अधिक कठिनाई जो थी वह यह कि यह अन्थ स्थान २ पर खण्डित अवस्था में है। इन कठिनाइयों के होते हुए भी प्रकाशक के द्वारा निरन्तर प्रोत्साहन मिलते रहने से ही मैं इस कार्य को पूर्ण कर सका हूं अतः मैं उनका अत्यन्त कृतज्ञ हूं।


इस संहिता के अनुवाद कार्य में मुझे बहुत से व्यक्तियों से अत्यन्त अमूल्य सहायता प्राप्त हुई है उनको मैं हृदय से धन्यवाद देता हूं। गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालय के वयोवृद्ध उपाध्याय श्री कविराज हरिदास जी शास्त्री न्यायतीर्थ का मैं अत्यन्त आभारी हूं जिनसे मुझे समय २ पर बहुमूल्य सहायता मिलती रही है।

श्री पं० हरिदत्त जी वेदालङ्कार, श्री पं० रामनाथ जी वेदालङ्कार तथा श्री पं० शंकरदेव जी विद्या- लङ्कार को भी मैं धन्यवाद देता हूं इनसे मुझे हर प्रकार की सहायता प्राप्त होती रही है। ऋषिकुल आयुर्वेद कालेज के विद्यार्थी ऋषिप्रकाश को भी हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते जिन्होंने हमारे इस कार्य में अत्यन्त सहयोग प्रदान किया। अन्त में मुझे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीलादेवी को भी अवश्य धन्यवाद देना चाहिये जिनकी आत्मिक सहायता एवं इच्छाशक्ति के बिना यह कार्य पूरा नहीं हो सकता था।

अन्त में हिन्दी अनुवाद के विषय में मैं इतना अवश्य कह देना चाहता हूँ कि इस संहिता में कुछ ऐसे विषय आये हुए हैं जो अत्यन्त अस्पष्ठ एवं संदिग्ध हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी मैं उनको स्पष्ट नहीं कर सका हूँ। उन संदिग्ध स्थलों का हमने अन्य कई वृद्ध वैद्यों के निर्देशानुसार केवल शब्दानुवाद मात्र कर दिया है। विद्वान् पाठक उन संदिग्ध स्थलों के विषय में मुझे अपने विचार लिख सकें तो मैं उनका आभारी होते हुए उन स्थलों का अगले संस्करण में स्पष्ट करने का प्रयत्न करूँगा।


अक्षय तृतीया वि० संवत् २०१० }

निवेदक - सत्यपाल आयुर्वेदालङ्कार

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