QR Code
लघुसिद्धान्त कौमुदी भैमीव्याख्या भाग १ - Laghu Siddhant Kaumudi - Bhaimi Vyakhya Part 1

लघुसिद्धान्त कौमुदी भैमीव्याख्या भाग १ - Laghu Siddhant Kaumudi - Bhaimi Vyakhya Part 1 Upayogi Books

5/5 (1 Reviews) December 14, 2023
Guru parampara

Latest Version

Update
December 14, 2023
Categories
Grammer
Language
Hindi Sanskrit
File Size
187 MB
Downloads
1,099
License
Free
Download Now (187 MB)

More About लघुसिद्धान्त कौमुदी भैमीव्याख्या भाग १ - Laghu Siddhant Kaumudi - Bhaimi Vyakhya Part 1 Free PDF Download

Laghu Siddhant Kaumudi - Bhaimi Vyakhya Part 1

Laghu Siddhant Kaumudi - Bhaimi Vyakhya Part 1

संस्कृतभाषा अनेक भाषाओं की जननी तथा विश्व की एक अत्यन्त प्राचीन समृद्ध भाषा- है। विश्व का अद्ययावत् ज्ञात प्राचीनतम ग्रन्य ऋग्वेद इसी भाषा में ही निबद्ध है। यदि कोई संस्कृतभाषा पर अधिकार कर ले तो विश्व की अनेक भाषाओं पर उसका आधिपत्य अल्प आयास से ही सिद्ध हो सकता है।

इसके अतिरिक्त संस्कृताध्ययन का एक और भी बड़ा प्रयोजन है। क्योंकि विश्व के अनेक देशों की सांस्कृतिक परम्पराओं या कलाकौशल आदि विद्याओं का आधार या उठप्रेरक भारत और तत्कालीन भाषा संस्कृत ही रही है अतः संस्कृत के ज्ञान से ही उनका ज्ञान सम्भव है। आजकल के नवप्रसूत भाषाविज्ञान जैसे अपूर्वशास्त्र का भी एक प्रमुख आधारस्तम्भ संस्कृतभाषा का अध्ययन ही रहा है।

हिन्दू आर्यों के लिए संस्कृतभाषा का जानना और भी आवश्यक है क्योंकि उनकी निखिल धार्मिक वा सांस्कृतिक परम्पराएं संस्कृतभाषा में ही निबद्ध हैं। संस्कृतभाषा में केवल भारत का ही नहीं अपितु विश्व और मानव जाति के हज़ारों वर्ष पूर्व का इतिहास अब इस जीर्ण अवस्था में भी सुरक्षित है। अतः इतिहास-ज्ञान की दृष्टि से भी यह भाषा कम उपादेय नहीं है।

संस्कृतभाषा यद्यपि हजारों वर्षों तक लोकव्यवहार वा बोलचाल की भाषा रह चुकी है और उसमें यह उपयोगी गुण संसार की किसी भी भाषा से कम नहीं है तथापि विधिवशात् लोकव्यवहार वा बोलचाल से सर्वथा उठ जाने के कारण वह आज मृतभाषा (Dead Language) कही जाती है। अतः आज के युग में उसका अध्ययन विना व्याकरणज्ञान के होना सम्भव नहीं। इसके साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि संसार में केवल संस्कृत ही एक ऐसी भाषा है जिसके व्याकरण सर्वाङ्गीण और पूर्ण परिष्कृत कहे जा सकते हैं।

संस्कृतभाषा के इन व्याकरणों में महामुनिपाणिनि-प्रणीत पाणिनीयव्याकरण ही इस समय तक के बने व्याकरणों में सर्वश्रेष्ठ, अत्यन्त परिष्कृत, वेदानों में गणनीय, प्राचीन तथा लथ्धप्रतिष्ठ है। व्याख्योपव्याख्याओं तथा टीकाटिप्पण के रूप में जितना इसका विस्तार हुआ है उतना शायद भारत में किसी अन्य व्याकरण वा विषय का नहीं हुआ। आज भी लगभग एक हजार से अधिक ग्रन्थ पाणिनीयव्याकरण पर उपलब्ध हैं।


महामुनि पाणिनि का काल अभी तक ठीक तरह से निश्चित नहीं हुआ। परन्तु अनेक विद्वानों का कहना है कि उनका आविर्भाव भगवान् बुद्ध (५४३ ई० पूर्व) से बहुत पूर्व हो चुका था। कारण कि भगवान् बुद्ध के काल में जहां पाली और प्राकृत भाषाएं जनसाधारण की भाषाएं थीं वहां पाणिनि के काल में उदात्तादिस्वस्युक्त संस्कृतभाषा का ही जनभाषा होना अष्टाध्यायी के अनेक साक्ष्यों से सुतरां सिद्ध होता है।'

पाणिनि ने स्वयं भी लोकभाषा को अष्टाध्यायी में 'भाषा' के नाम से अनेकशः प्रयुक्त किया है। जो लोग अष्टाध्यायी में आये श्रमण, यवन, मस्करिन्' आदि शब्दों को देखकर पाणिनि को बुद्ध और सिकन्दर से अर्वाचीन सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं वे भ्रान्त हैं, क्योंकि ये शब्द तो बुद्ध से बहुत पूर्व ही भारतीयों को परिचित थे।

सन्यासी अर्थ में श्रमण शब्द ब्राह्मणग्रन्थों में प्रयुक्त है। मस्करिन् शब्द दण्डधारण करने के कारण साधारण परिव्राजकमात्र का वाचक है बुद्धकालीन मंखली गोसाल नामक आचार्य का नहीं। यवनजाति से तो भारतीय लोग यूनानी सम्राट् सिकन्दर के भारत पर आक्रमण करने से बहुत पहले ही परिचित थे।

महाभारत में अनेक स्थानों पर यवनजाति का उल्लेख आया है। भगवान् कृष्ण का भी कालयवन से युद्ध हुआ था। इसके अतिरिक्त अष्टाध्यायी में निर्वाणोऽवाते (८.२.५०) सूत्र में प्रतिपादित 'निर्वाण' पद बौद्धकालिक (मोक्ष) अर्थ की ओर संकेत नहीं करता अपितु 'निर्वाणः प्रदीपः' (दीपक बुझ गया) अर्थ की ओर संकेत करता है, इससे भी पाणिनि का बुद्ध से पूर्वभावी होना निश्चित होता है।

अन्यथा वे निर्वाण शब्द के बौद्धकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध मोक्ष अर्थ का कभी भी अपलाप न कर पाते ।

गोल्डस्टूकर तथा रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर आदि ने पाणिनि का समय सातवीं ईसापूर्व शताब्दी माना है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनि को ईसा से ४५० वर्ष पूर्व का सिद्ध किया है। इन सब से हटकर नये भारतीय ढंग के विवेचक श्रीयुधिष्ठिरमीमांसक अपनी अनेक युक्तियों से पाणिनि का काल विक्रम से २९०० वर्ष पूर्व सिद्ध करते हैं।' इस तरह पाणिनि का काल अभी विवादास्पद ही समझना चाहिये ।

पाणिनि का इतिवृत्त उनके काल से भी अधिक अज्ञात है। भाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार इनकी माता का नाम दाक्षी था। न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि, काव्यालङ्कार-कार भामह तथा गणलमहोदधिकार वर्धमान ने पाणिनि के पूर्वजों का निवासस्थान शलातुर नामक ग्राम माना है।

पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार यह स्थान इस समय पाकिस्तान के उत्तरपश्चिमीसीमाप्रान्त के निकट अटक के पास लहुर नाम से (जो शलातुर का अपभ्रंश है) अभी तक प्रसिद्ध है। चीनी यात्री व्यूआन् चुआ (प्रसिद्ध नाम केन्साङ्ग) सप्तम शताब्दी के आरम्भ में मध्यएशिया से स्थलमार्गद्वारा भारत आता हुआ इसी स्थान पर ठहरा था।

उसने लिखा है कि- "उद्द्माण्ड (ओहिन्द) से लगभग चार मील दूर शलातुर स्थान है। यह वही स्थान है जहां ऋषि पाणिनि का जन्म हुआ था। यहां के लोगों ने पाणिनि की स्मृति में एक मूर्ति बनाई है जो अब तक मौजूद है।" कथासरित्सागर के अनुसार पाणिनि बचपन में जइबुद्धि थे। इनके गुरु का नाम 'वर्ष' था। गुरुपत्नी की प्रेरणा से इन्होंने हिमालय पर जाकर तपस्या से विद्या प्राप्त की।

कतिपय विद्वानों का कथन है कि छन्दः सूत्र के निर्माता पिङ्गलमुनि इनके कनिष्ठ भ्राता थे। कुछ अन्य विद्वान् पाणिनि पिङ्गल और निरुक्तकार यास्क को लगभग समकालिक ही मानते हैं।" श्रीयुधिष्ठिरमीमांसक के अनुसार पाणिनि के मामा का नाम व्याडि था । इन्होंने पाणिनीय व्याकरण के दार्शनिकपक्ष पर एक लाख श्लोकों में 'संग्रह' नामक ग्रन्य रचा था जो अब बहुत काल से सर्वथा लुप्त हो चुका है।

महाभाष्य और काशिका के अनुसार पाणिनि ने अपना ग्रन्थ अनेक शिष्यों को कई बार पढ़ाया था।' भाष्य में इनके एक शिष्य कौल्स का उल्लेख भी मिलता है। राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा में एक जनश्रुति का उल्लेख किया है जिसके अनुसार पाणिनि की विद्वत्ता की परीक्षा पाटलिपुत्र में हुई थी और उसके बाद। ही उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हुई।


महामुनि पाणिनि जैसा वैयाकरण संसार में फिर आज तक उत्पन्न नहीं हुआ। साङ्गोपाङ्ग वेद, उसकी अनेकाविध शाखाएं, ब्राह्मण साहित्य, उपनिषत्, कल्प, ज्योतिषु, इतिहास, कोष, विविधकलात्मक ग्रन्य, काव्यनाटक, नानाविध देशीय या प्रान्तीय लोकभाषओं के सूक्ष्मप्रभेदक प्रबन्ध- इस प्रकार न जाने अन्य भी कितना विशाल वाङ्मय उनके अध्ययन और मनन का विषय रहा होगा इसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनका निःसंदेह लोक एवं वेद पर समानरूप से अधिकार था।

वे अपने प्रसिद्ध ग्रन्य अष्टाध्यायी में प्रत्यक्षतः वा अप्रत्यक्षतः सैकड़ों व्यक्तियों, ग्रन्थों, ग्रामों, जनपदों और स्थानों का स्मरण करते हैं' जिनसे तत्कालीन संस्कृति, इतिहास, समाजव्यवस्था तथा राजनैतिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि उन्हें तत्कालीन इतिहास परम्परा, साहित्य, कला, दर्शन आदि का पूर्ण ज्ञान था। सचमुच वे अलौकिकप्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन जैसे व्यक्ति को जन्म देकर भारत का मुख चिरकाल तक उज्ज्वल रहेगा। इस प्रकार के व्यक्ति सृष्टि में बार- बार उत्पन्न नहीं होते।  

Rate the PDF

Add Comment & Review

User Reviews

Based on
5 Star
1
4 Star
0
3 Star
0
2 Star
0
1 Star
0

"Bisho"

Bishomitra

3 months ago

Ggg

Add Comment & Review
We'll never share your email with anyone else.