योग की मान्यतानुसार 'प्रकृति' तथा 'पुरुष' (चेतन (आत्मा) दो भिन्न तत्व हैं जो अनादि हैं। इन दोनों के संयोग से ही इस समस्त जड़, चेतनमय सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्रकृति जड़ है जो सत्व, रज तथा तम तीन गुणों से युक्त है।
इसके साथ जब चेतना (पुरुष) का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है। यह 'प्रकृति दृश्य' है तथा 'पुरुष दृष्टा' है।
इस सृष्टि में सर्वत्र प्रकृति ही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किन्तु प्रकृति का यह सम्पूर्ण कार्य उस पुरुष तत्व की प्रधानता से ही हो रहा है। ये दोनों इस प्रकार संयुक्त हो गये हैं कि इन्हें अलग- अलग पहचानना कठिन है। इसका कारण अविद्या है
'पुरुष' सर्वज्ञ है तथा प्रकृति के हर कण में व्याप्त होने से वह सर्वव्यापी भी है। जीव भी इन दोनों के ही संयोग का परिणाम है। उस 'पुरुष' को शरीर में 'आत्मा' तथा सृष्टि में 'विश्वात्मा' कहा जाता है।
योग का अर्थ है 'मिलना', 'जुड़ना', 'संयुक्त होना' आदि। जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्य विकारों को त्याग कर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता वही 'योग' है। यह आत्मा ही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है।
अन्य सभी स्वरूप प्रकृति जन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञात होते हैं। इन मुखौटों को उतारकर अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाना ही योग है। यही उसकी 'कैवल्यावस्था' तथा 'मोक्ष' है।
योग की अनेक विधियाँ हैं। कोई किसी का भी अवलम्बन करे अन्तिम परिणाम वही होगा। विधियों की भिन्नता के आधार पर योग के भी अनेक नाम हो गये हैं जैसे- राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, विन्दुयोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि किन्तु सबका एक ही ध्येय है उस पुरुष (आत्मा) के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना ।
महर्षि पतंजलि का यह योग दर्शन इन सब में श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत् मार्ग बताता है जो शरीर, इन्द्रियों तथा मन को पूर्ण अनुशासित करके चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है।
पतंजलि चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही 'योग' कहते हैं क्योंकि इनके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस निरोध के लिए वे अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अंग हैं) का मार्ग बताते हैं जो निरापद है।
इसलिए इसे अनुशासन कहा जाता है जो परम्परागत तथा अनादि है। इसके मार्ग पर चलने से किसी प्रकार का भय नहीं है तथा कोई अनिष्ट भी नहीं होता, न मार्ग में कहीं अवरोध ही आता है।
जहाँ-जहाँ अवरोध आते हैं उनका इस ग्रंथ में स्थान- स्थान पर वर्णन कर दिया है जिससे साधक इनसे बचता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुँच सकता है।
योग की मान्यतानुसार 'प्रकृति' तथा 'पुरुष' (चेतन आत्मा) दो भिन्न तत्व हैं जो अनादि हैं। इन दोनों के संयोग से ही इस समस्त जड़ चेतन मय सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्रकृति जड़ है जो सत्व, रज तथा तम तीन गुणों से युक्त है।
इसके साथ जब चेतना (पुरुष) का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है। यह 'प्रकृति दृश्य' है तथा 'पुरुष दृष्टा' है। इस सृष्टि में सर्वत्र प्रकृति ही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किन्तु प्रकृति का यह सम्पूर्ण कार्य उस पुरुष तत्व की प्रधानता से ही हो रहा। है।