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वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी - Vaiyakaran Shiddhanta Kaumudi PDF

वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी - Vaiyakaran Shiddhanta Kaumudi PDF Upayogi Books

by Om Namah Shivaaya Prakashan
(0 Reviews) September 26, 2023
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September 26, 2023
Writer/Publiser
Om Namah Shivaaya Prakashan
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Sanskrita Study
Language
Sanskrit
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सिद्धान्तकौमुदी संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है जिसके रचयिता भट्टोजि दीक्षित हैं। इसका पूरा नाम "वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी" है। भट्टोजि दीक्षित ने प्रक्रियाकौमुदी के आधार पर सिद्धांत कौमुदी की रचना की। इस ग्रंथ पर उन्होंने स्वयं प्रौढ़ मनोरमा टीका लिखी।

वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी - Vaiyakaran Shiddhanta Kaumudi PDF

भट्टोजिदीक्षित के शिष्य वरदराज भी व्याकरण के महान पण्डित हुए। उन्होने लघुसिद्धान्तकौमुदी की रचना की।

सिद्धांतकौमुदी भट्टोजिदीक्षित नामक व्यक्ति द्वारा लिखित एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह "शब्द कौस्तुभ" नामक एक अन्य पुस्तक के बाद लिखा गया था। भट्टोजिदीक्षित ने इस पर "प्रौढमनोरमा" नामक टीका भी लिखी। चीजें कैसे काम करती हैं, इसके बारे में सिद्धांत-कौमुदी को सबसे अच्छी किताब माना जाता है। इससे पहले लिखी गई पुस्तकों में सभी महत्वपूर्ण नियम शामिल नहीं थे। लेकिन भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धांतकौमुदी में सभी नियमों को व्यवस्थित किया और धातु और व्याकरण जैसे विभिन्न विषयों पर भी बात की। उन्होंने अंत में वैदिक प्रक्रिया और स्वर प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी शामिल की।

भट्टोजिदीक्षित ने पाणिनीय व्याकरण को व्यापक रूप से समझाने का प्रयास किया है। ऐसा उन्होंने अन्य विद्वानों की विभिन्न व्याख्याओं और मतों को देखकर किया। उन्होंने आवश्यकतानुसार परिभाषाएँ, अभिव्यक्तियाँ और टिप्पणियाँ भी शामिल कीं। उन्होंने मुनित्रय के विचारों की तुलना की और महाभाष्य के आधार पर अपने मत जोड़े। इसके अतिरिक्त, उन्होंने प्रसिद्ध कवियों द्वारा प्रयोग किये गये कुछ विवादास्पद प्रयोगों पर भी विचार किया।

मध्य युग के दौरान, सिद्धांतकौमुदी नामक पुस्तक वास्तव में लोकप्रिय हो गई और बहुत से लोगों ने इसका उपयोग करना शुरू कर दिया। इस कारण व्याकरण संबंधी पुरानी पुस्तकें, जैसे  मुग्धाबोध आदि भुलायी जाने लगीं। हालाँकि, जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोगों को एहसास हुआ कि सिद्धांतकौमुदी को व्याकरण पढ़ाने के तरीके में कुछ समस्याएँ थीं। लेकिन यह जानने के बावजूद भी वे इसका इस्तेमाल बंद नहीं कर सके।

व्याकरण के अध्ययन में भट्टजीदीक्षित एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उन्होंने व्याकरण में इतना विशेष योगदान दिया है कि लोग भूल जाते हैं कि महाभाष्य नामक दूसरा ग्रंथ कितना महत्वपूर्ण है। अब लोगों को यह एहसास हो रहा है कि सिद्धांतकौमुदी नामक एक अन्य पुस्तक न केवल महाभाष्य को समझने का एक तरीका है, बल्कि यह इसे संक्षिप्त और विस्तृत तरीके से सारांशित भी करती है। इसीलिए लोग कहते हैं सिद्धांतकौमुदी महाभाष्य की कुंजी की तरह है।

इसी हेतु यह उक्ति प्रचलित हैः-

कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः।
कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः॥

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मंगलाचरणम्

येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात् ।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ 

येन धौता गिरः पुंसां विमलेश्शब्दवारिभिः ।
तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ॥ 2 ॥

वाक्यकारं वररुचिं भाष्यकार पतञ्जलिम् ।
पाणिनिं सूत्रकारञ्च प्रणतोऽस्मि मुनित्रयम् ॥ 3 ॥

मुनित्रयं नमस्कृत्य तदुक्तीः परिभाव्य च ।
वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीयं विरच्यते ॥ 4

अइउण् । ऋलृक् । एओङ् । ऐऔच् । हयवरट् । ञमङणनम् । झभञ् । घढधष् । जबगडदश् । खफछठथचटतव् । कपय् । शषसर् । हल् ॥

इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ।एषामन्त्या इतः । लण्सूत्रे अकारश्च । हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः ।


1: हलन्त्यम् (1.3.3)

हल (मा.सू. - 14 ) इति सूत्रे ऽन्त्यमित्स्यात् ।


2: आदिरन्त्येन सहेता (1.1.71)

अन्त्येनेता सहित आदिर्मध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् ॥ इति हल्संज्ञायाम् ॥ उपदेशे ऽन्त्यं हलित्स्यात् ॥ उपदेश आद्योच्चारणम् ॥ ततः अण् अच् इत्यादिसंज्ञासिद्धौ ॥


3: उपदेशेऽजनुनासिक इत् (1.3.2)

उपदेशेऽनुनासिको ऽजित्संज्ञः स्यात् । प्रतिज्ञानुनासिक्याः पाणिनीयाः । लण्सूत्रस्थावर्णेन सहोच्चार्यमाणौ रेफौ रलयोः संज्ञा । प्रत्याहारेष्वितां न ग्रहणम् । अनुनासिक इत्यादिनिर्देशात् ॥ नह्यत्र ककारे परेऽच्कार्यं दृश्यते । आदिरन्त्येनेत्येतत्सूत्रेण कृताः प्रत्याहारशब्देन व्यवह्रियन्ते ॥


4: ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुत: (1.2.27)

उश्च ऊश्च ऊ3श्च वः । वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद्धस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् । स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ॥


5: उच्चैरुदात्त: (1.2.29)

ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेषूर्ध्वभागे निष्पन्नोऽज्जुदात्तसंज्ञः स्यात् । आ ये ॥


6: नीचैरनुदात्त: (1.2.30)

स्पष्टम् ॥ अर्वाङ् ॥


7: समाहारः स्वरित: (1.2.31)

उदात्तानुदात्तत्वे वर्णधर्मौ समाह्रियेते यस्मिन्सोऽच् स्वरितसंज्ञः स्यात् ॥


8 तस्यादित उदात्तमर्धहस्वम् (1.2.32)

ह्रस्वग्रहणमतन्त्रम् । स्वरितस्यादितो ऽर्धमुदात्तं बोध्यम् । उत्तरार्धं तु परिशेषादनुदात्तम् । तस्य चोदात्तस्वरितपरत्वे श्रवणं स्पष्टम् । अन्यत्र तूदात्तश्रुतिः प्रातिशाख्ये प्रसिद्धा । क्व१ वोऽश्वाः । स्थानां न येश्राः ॥ शतच॑त्र॒ यो॑3 ह्यः ॥ इत्यादिष्वनुदात्तः ॥ अ॒ग्निमी॑ळे इत्यादावुदात्तश्रुतिः ॥ स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा ॥

9: मुखनासिकावचनोऽनुनासिक: (1.1.8)

मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् । तदित्थम् अ इ उ ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादशभेदाः । ऌवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् । एचामपि द्वादश तेषां ह्रस्वाभावात् ॥


10: तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् (1.1.9)

ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतद्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात् । अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः । इचुयशानां तालु। ऋटुरषाणां मूर्धा । ऌतुलसानां दन्ताः । उपूपध्मानीयानामोष्ठौ । ञमङणनानां नासिका च । एदैतोः कण्ठतालु । ओदौतोः कण्ठोष्ठम् | वकारस्य दन्तोष्ठम् ॥ जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् । नासिकानुस्वारस्य । इति स्थानानि । यत्नो द्विधा आभ्यन्तरो बाह्यश्च । आद्यश्चतुर्धा स्पृष्टेषत्स्पृष्टविवृतसंवृतभेदात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्टमन्तस्थानाम् । विवृतमूष्मणां स्वराणां च । ह्रस्वस्याऽवर्णस्य प्रयोगे संवृतम् । प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव । एतच्च सूत्रकारेण ज्ञापितम् । तथाहि ।।


11:अ अ (8.4.68)

इति विवृतमनूद्य संवृतोऽनेन विधीयते । अस्य चाष्टाध्यायीं सम्पूर्णां प्रत्यसिद्धत्वाच्छास्त्रदृष्ट्या विवृतत्वमस्त्येव । तथा च सूत्रम् ॥

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