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क्या करें क्या न करें - Kya Karen Kya Na Karen Gita Prakashan PDF

क्या करें क्या न करें - Kya Karen Kya Na Karen Gita Prakashan PDF Upayogi Books

by Gita Prakashan
(0 Reviews) September 29, 2023
Guru parampara

Latest Version

Update
September 29, 2023
Writer/Publiser
Gita Prakashan
Language
Hindi Sanskrit
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7.40 MB
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Free
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प्रस्तुत पुस्तककी रचनायें हमारे परमश्रद्धास्पद स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजकी सत्प्रेरणा रही है और उन्हींकी कृपाशक्तिसे यह कार्य सम्पन्न हो सका है।

॥ श्रीहरिः ॥

क्या करें क्या न करें - Kya Karen Kya Na Karen Gita Prakashan PDF

प्राक्कथन

हिन्दू-संस्कृति अत्यन्त विलक्षण है। इसके सभी सिद्धान्त पूर्णत: वैज्ञानिक और मानवमात्रकी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति करनेवाले हैं। मनुष्यमात्रका सुगमतासे एवं शीघ्रतासे कल्याण कैसे हो - इसका जितना गम्भीर विचार हिन्दू-संस्कृतिमें किया गया है, उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं एवं व्यक्तियोंके सम्पर्कमें आता है और जो-जो क्रियाएँ करता है, उन सबको हमारे क्रान्तदर्शी ऋषि-मुनियोंने बड़े वैज्ञानिक ढंगसे सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है और उन सबका पर्यवसान परमश्रेयकी प्राप्तिमें किया है। इसलिये भगवान्ने गीतामें बड़े स्पष्ट शब्दोंमें कहा है-

शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ यः कामकारतः ।(गीता १६ । २३-२४)

'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) - को, न सुख (शान्ति) - को और न परमगतिको ही प्राप्त होता है । अतः तेरे लिये - कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधिके अनुसार कर्तव्य कर्म करने चाहिये।' -

तात्पर्य है कि हम 'क्या करें, क्या न करें ?' - इसकी व्यवस्थामें शास्त्रको ही प्रमाण मानना चाहिये। जो शास्त्रके अनुसार आचरण करते हैं, वे 'नर' होते हैं और जो मनके अनुसार (मनमाना ) आचरण करते हैं, वे 'वानर' होते हैं-

मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानराः । शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः ॥

गीता में भगवान् ने ऐसे मनमाना आचरण करनेवाले मनुष्योंको 'असुर' कहा है-

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।(गीता १६ । ७)

वर्तमान समयमें उचित शिक्षा, संग, वातावरण आदिका अभाव होनेसे समाजमें उच्छृंखलता बहुत बढ़ चुकी है। शास्त्रके अनुसार क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये - इसे नयी पीढ़ीके लोग जानते भी नहीं और जानना चाहते भी नहीं। जो शास्त्रीय आचार-व्यवहार जानते हैं, वे बताना चाहें तो उनकी बात न मानकर उनकी हँसी उड़ाते हैं। लोगोंकी अवहेलनाके कारण हमारे अनेक धर्मग्रन्थ लुप्त होते जा रहे हैं। जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनको पढ़नेवाले भी बहुत कम हैं। पढ़नेकी रुचि भी नहीं है और पढ़नेका समय भी नहीं है ! शास्त्रोंको जाननेवाले, बतानेवाले और तदनुसार आचरण करनेवाले सत्पुरुष दुर्लभ से हो गये हैं। ऐसी परिस्थितिमें यह आवश्यक समझा गया कि एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित की जाय, जिससे जिज्ञासुजनोंको शास्त्रोंमें आयी आचार-व्यवहार-सम्बन्धी आवश्यक बातोंकी जानकारी प्राप्त हो सके। इसी दिशामें यह प्रयत्न किया गया है।

शास्त्र अथाह समुद्रकी भाँति हैं । जो शास्त्र उपलब्ध हुए, उनका अवलोकन करके अपनी सीमित सामर्थ्य, समझ, योग्यता और समयके अनुसार प्रस्तुत पुस्तककी रचना की गयी है। जिन बातोंकी जानकारी लोगोंको बहुत कम है, उन बातोंको मुख्यतासे प्रकाशमें लानेकी चेष्टा की गयी है। यद्यपि पाठकोंको कुछ बातें वर्तमान समयमें अव्यावहारिक प्रतीत हो सकती हैं, तथापि अमुक विषयमें शास्त्र क्या कहता है- इसकी जानकारी तो उन्हें हो ही जायगी !

प्रस्तुत पुस्तककी रचनायें हमारे परमश्रद्धास्पद स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजकी सत्प्रेरणा रही है और उन्हींकी कृपाशक्तिसे यह कार्य सम्पन्न हो सका है। पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे इस पुस्तकका अध्ययन करें और इसमें आयी बातोंको अपने जीवनमें उतारनेकी चेष्टा करें।

गीता - जयन्ती विक्रम संवत् २०५८

- विनीत राजेन्द्र कुमार धवन

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