वैशम्पायन उवाच
अथ गावल्गणिर्विद्वान् संयुगादेत्य भारत । प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यवित् ॥ १ ॥
ध्यायते धृतराष्ट्राय सहसोत्पत्य दुःखितः । आचष्ट निहतं भीष्मं भरतानां पितामहम् ।। २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतनन्दन! तदनन्तर एक दिनकी बात है कि भूत, वर्तमान और भविष्यके ज्ञाता एवं सब घटनाओंको प्रत्यक्ष देखनेवाले गवल्गणपुत्र विद्वान् संजयने युद्धभूमिसे लौटकर सहसा चिन्तामग्न धृतराष्ट्रके पास जा अत्यन्त दुःखी होकर भरतवंशियोंके पितामह भीष्मके युद्धभूमिमें मारे जानेका समाचार बताया ।। १-२ ।।
संजय उवाच
संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ । हतो भीष्मः शान्तनवो भरतानां पितामहः ।। ३ ।।
संजय बोले- महाराज! भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। मैं संजय आपकी सेवामें उपस्थित हूँ। भरतवंशियोंके पितामह और महाराज शान्तनुके पुत्र भीष्मजी आज युद्धमें मारे गये || ३ ||
ककुदं सर्वयोधानां धाम सर्वधनुष्मताम् । शरतल्पगतः सोऽद्य शेते कुरुपितामहः ।। ४ ।
जो समस्त योद्धाओंके ध्वजस्वरूप और सम्पूर्ण धनुर्धरोंके आश्रय थे, वे ही कुरुकुलपितामह भीष्म आज बाणशय्यापर सो रहे हैं ॥। ४ ॥
यस्य वीर्य समाश्रित्य द्यूतं पुत्रस्तवाकरोत् । स शेते निहतो राजन् संख्ये भीष्मः शिखण्डिना ।। ५ ।।
राजन्! आपके पुत्र दुर्योधनने जिनके बाहुबलका भरोसा करके जूएका खेल किया था, वे भीष्म शिखण्डीके हाथों मारे जाकर रणभूमिमें शयन करते हैं ।। ५ ।।
यः सर्वान् पृथिवीपालान् समवेतान् महामृधे ।जिगायैकरथेनैव काशिपूर्या महारथः ।। ६ ।। जामदग्न्यं रणे रामं योऽयुध्यदपसम्भ्रमः । न हतो जामदग्न्येन स हतोऽद्य शिखण्डिना ॥ ७ ॥
जिन महारथी वीर भीष्मने काशिराजकी नगरीमें एकत्र हुए समस्त भूपालोंको अकेला ही रथपर बैठकर महान् युद्धमें पराजित कर दिया था, जिन्होंने रणभूमिमें जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ निर्भय होकर युद्ध किया था और जिन्हें परशुरामजी भी मार न सके, वे ही भीष्म आज शिखण्डीके हाथसे मारे गये ।। ६-७ ।।
महेन्द्रसदृशः शौर्ये स्थैर्ये च हिमवानिव ।समुद्र इव गाम्भीर्ये सहिष्णुत्वे धरासमः ॥ ८ ॥
जो शौर्यमें देवराज इन्द्रके समान, स्थिरतामें हिमालयके समान, गम्भीरतामें समुद्रके समान और सहनशीलतामें पृथ्वीके समान थे ।। ८ ।
शरदंष्ट्रो धनुर्वक्त्रः खड्गजिह्वो दुरासदः । नरसिंहः पिता तेऽद्य पाञ्चाल्येन निपातितः ॥ ९ ॥
जो मनुष्योंमें सिंह थे, बाण ही जिनकी दाढ़े थीं, धनुष जिनका फैला हुआ मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी और इसीलिये जिनके पास पहुँचना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे ही आपके पिता भीष्म आज पांचालराजकुमार शिखण्डीके द्वारा मार गिराये गये ।। ९ ।।
पाण्डवानां महासैन्यं यं दृष्ट्वोद्यतमाहवे । प्रावेपत भयोद्विग्नं सिंहं दृष्ट्वेव गोगणः ।। १० ।।परिरक्ष्य स सेनां ते दशरात्रमनीकहा।जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ।। ११ ।।
जैसे गौओंका झुंड सिंहके देखते ही भवसे व्याकुल हो उठता है, उसी प्रकार जिन्हें युद्धमें हथियार उठाये देख पाण्डवोंकी विशाल वाहिनी भयसे उद्विग्न होकर थरथर काँपने लगती थी, वे ही शत्रुसैन्यसंहारक भीष्म दस दिनोंतक आपकी सेनाका संरक्षण करके अत्यन्त दुष्कर पराक्रम प्रकट करते हुए अन्तमें सूर्यकी भाँति अस्ताचलको चले गये । १०-११ ।।
यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन् बाणान् सहस्रशः ।
जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः ।। १२ ।। स शेते निहतो भूमौ वातभग्न इव द्रुमः । तव दुर्मन्त्रिते राजन् यथा नार्हः स भारत ।। १३ ।।
जिन्होंने इन्द्रकी भाँति क्षोभरहित होकर हजारों बाणोंकी वर्षा करते हुए दस दिनोंमें शत्रुपक्षके दस करोड़ योद्धाओंका संहार कर डाला, वे ही आज आँधीके उखाड़े हुए वृक्षकी