सम्पादकीय
भारतवर्ष ही नहीं अपितु विश्व के साधकों को मन्त्र-साधना के क्षेत्र में मार्ग- दर्शन हेतु एक ऐसे ग्रन्थ की नितान्त आवश्यकता थी जो उन्हें सम्यक् एवं समुचित ज्ञान दे सके, उन्हें सैद्धान्तिक पद्धति का मर्म बता सके और उनकी समस्याओं के निराकरण हेतु पथ-प्रदर्शन कर सके। सही शब्दों में देखा जाए तो यह ग्रन्थ इसकी पूर्ति के लिए ठोस एवं दृढ़ कदम है। मन्त्र शास्त्र के क्षेत्र में पहली बार इस ग्रन्थ के माध्यम से बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हुई है, इसमें सन्देह नहीं ।
इस ग्रन्थ की रूपरेखा लगभग दस वर्ष पहले बन गई थी जबकि साधकों की तरफ से बराबर इस प्रकार के पत्र प्राप्त होते थे जिससे कि उन्हें कोई ऐसा ग्रन्थ प्राप्त हो सके जिसमें मन्त्र शास्त्र का वैज्ञानिक निरूपण हो और जिसमें व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक पक्ष का सम्यक् संयोजन हो। इसके लिए डॉ० श्रीमाली से बढ़कर और कौनसा व्यक्तित्व हो सकता था ? परन्तु वे इतने अधिक व्यस्त थे कि चाहते हुए श्री इस ग्रन्थ-निर्माण में आगे कार्य नहीं हो सका ।
मैंने इस ग्रन्थ की रूपरेखा बनाकर उनके सामने प्रस्तुत की और निवेदन किया कि जब भी आपको समय मिले, आप मुझे व्याख्यान दें जिससे कि मैं उसे लिपिबद्ध कर सकूं । परन्तु फिर भी काफी समय यों ही बीत गया। मैं स्वयं देख रहा था कि वे इतने अधिक व्यस्त हैं कि चाहते हुए भी समय नहीं निकल पा रहा है।
इस बीच अनेक साधुओं, संन्यासियों, गृहस्थ शिष्यों तथा साधकों के द्वारा यह मांग बराबर जोर पकड़ती गई कि मन्त्र - शास्त्र के क्षेत्र में इस प्रकार के ग्रन्थ की नितान्त आवश्यकता है । अतः जब बहुत अधिक दबाव और आग्रह प्रस्तुत हुआ तो उन्होंने समय निकालकर थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास किया, साथ ही साथ समय मिलने पर मुझे भी लिपिबद्ध कराते गए ।
एक बार पूरा ग्रन्थ लिखने के बाद भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। वे इसे पूर्ण तथा सांगोपांग बनाना चाहते थे। अतः काफी सामग्री निकाल दी गई और कुछ नई सामग्री लिखी गई जिससे कि उन साधकों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।