यह सांख्य कहता है क्या? सांख्य ऐसा नहीं कहता यह हमारा मत है तथा हमारा मत है कि पुरुष (तत्त्व) purpose से मुक्त है-ऐसा मानने वाले सभी व्याख्याकार अवश्य ही सांख्य में अंश हैं।
Suryanarayana Sastri जी को चाहिये कि वे या तो यह दिखायें कि सांख्यशास्त्र अपरिणामी पुरुष को purpose-युक्त मानता है अथवा यह स्वीकार करें कि सांख्य में पुरुप purpose-युक्त स्वीकृत न होने पर भी वे किसी व्याख्याकार के दबाव के कारण पुरुष को वैसा मानते हैं, जिसके कारण उनको सांख्ध-मत की संगति समझने में कठिनता होती है।
हमने जो कुछ भी लिखा है, वह गुणत्रय-पुरुष-सत्कार्यवाद के अनुसार है, अतः हम अपने मतों को सङ्गत ही समझते हैं। कितने ही ऐसे सांख्यमत प्रचलित हैं, जो त्रिगुणानु- सारी नहीं है। ऐसे मतों को हम असांक्योय हो समझते हैं।
हमारे अनुसार सांख्य को मूल प्रतिशाओं में अद्ययावत् कोई परिवर्तन नहीं हुआ; कुछ लोगों ने असांख्यीय मतों को अज्ञानवश सांख्यिय मत कहकर प्रचार किया- यह दूसरी बात है। शङ्करादि आचार्यों ने सांख्यमत के रूप में जिन मतों को प्रचारित किया, उनमें बहुसंख्यक मत सांख्पोय नहीं हैं, क्योंकि वे मत त्रिगुण-पुरुप-सत्कार्यवादानुगामी नहीं हैं। तस्त्रों की उपलब्धि समाधि- साध्य है-अतः बहिर्दृष्टि से सांख्यीय तत्वों के विषय में समालोचना करना उपहासा स्पद कार्य है।
हमारा यह स्पष्ट मत है कि प्रचलित द्वैतवाद, अद्वैतवाद आदि के रूप में सांख्यीय दृष्टि को समझा नहीं जा सकता। दृष्टिकोणों को मिन्नता के आधार पर सांस्य अद्वैत वादी भी है, द्वैतवादी भी है। मूत्रीभूत पदार्थों को संख्या के अनुसार दर्शनों का क्षेणोविनाग करना अन्याय्य है, क्योंकि अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति की वृष्टि में इस विभाग का कोई फल नहीं है।
प्रस्तुत ग्रन्थ बहुत बढ़ जाने के कारण भूमिका में विचाराहं 'सृष्टिप्रक्रिया' "सांख्यिय दृष्टि का स्वरूप' तथा 'सांख्योम ईश्वरवाद' इन विषयों का विशद प्रतिपादन नहीं किया जा सका। सांख्यसंमत ब्रह्माण्ड-सर्जक प्रजापति रूप ईश्वर के विषय में आवश्यक बात इस ग्रन्थ में यथास्थान द्रष्टव्य है।
अनादिमुक्त-चित्त-व्यपदिष्ट क्लेशादि-अपरामृष्ट ईश्वर के विषय में ग्रन्य में कुछ कहने का अवसर नहीं आया। वर्तमान काल के लोगों के लिए प्रजापति हिरण्यगर्भ ईश्वर का प्रणिधान करना ही सुकर है; अनादिमुक्त ईश्वर का प्रणिधान करना कठिन है- अतः यह विवृत नहीं हुआ ]
सांख्य के विषय में इतना हो कहना यहाँ पर्याप्त होगा कि सांख्य प्रचलित अर्थ में न पूर्णतः ईश्वरवादी या निरीश्वरवादी है, न द्वैतवादी या अद्वैतवादी है, न जड़वादी या चेतनवादी है, न वस्तुवादी या विज्ञानवादी है। चेतन, जड़, नाना प्रकार के सोपा-धिक पुरुष (जो धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्यं तथा इनके विपरीत चार मावों के कारण असंख्य प्रकार के हैं), इनका परस्पर सम्बन्ध, ब्रह्माण्ड और उसकी सृष्टि, बन्ध-मोक्ष-व्यवस्था आदि विषयों पर सांख्य की निजी दृष्टियाँ हैं।
प्रकृति और पुरुष (तत्त्व) चूंकि अविश्लेष्य है, अतः सांख्य इन दो असंवेद्य तत्त्वों को परस्पर निरपेक्ष स्वप्रतिष्ठ मानता है। ध्यान देना चाहिए कि किसी देश या काल में केवल पुरुष या सुद्ध प्रकृति प्राप्तव्य नहीं है। जो ध्येय या प्राक्षब्य है, वह अवश्य ही 'चिज् जड का संघात- भूत पदार्थ' होगा। इन विषयों का सविस्तार प्रतिपादन भविष्य में प्रकाशनीय प्रसंख्यानभाष्य (सांख्यकारिका पर) में द्रष्टव्य है।
सांख्य को सेश्वर-निरीश्वररूपेण विभक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि ईश्वरता रूप धर्म का विश्लेपण करना सांख्य का विषय है (सांख्य से भिन्न किसी भी शास्त्र में ईश्वरता-धर्म का विश्लेपण नहीं है)।
सांख्य का कहना है कि सृष्टि और स्रष्टा के विषय में सांख्य-भिन्न सम्प्रदायों में जो मत दिखाई पड़ते हैं, वे बहुत कुछ बालोचित चिन्तापूर्ण हैं। हमारा कहना है कि ईश्वर के विषय में आंशिक तत्त्वज्ञान भी उसी को होता है जो विभूतियों को समझ सकता है। पृथ्वी में प्रचलित सभी सम्प्रदायों में जो विचार हैं उन विचारों के आधार पर कोई भी किसी भी विभूति की पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकता।
यह असामर्थ्य सिद्ध करती है कि इन सम्प्रदायों की ईश्वरविषयक दृष्टियाँ बहुत कुछ अज्ञतापूर्ण हैं। क्या रामानुज, मध्य, निम्बार्क, वल्लभ, बलदेव, श्रीकर, श्रीकण्ठ आदि आचायों के ग्रन्यों से प्रतीत होता है कि ने विभूति की कार्यकारण-परम्परा को समझते थे? इन आचार्यों की तुलना में शङ्कराचार्य अधिक सूक्ष्मदर्शी थे-इसमें संशय नहीं है।
कोई विभूति बिश्लेषणमूढ साम्प्रदायिक आचार्य जब ईश्वरविषय को लेकर विभूति को सम्यक् समझाने वाले सांख्य पर आक्षेप करते हैं तो उनकी इस धृष्टता पर मुझे हंसी आती है! साधारण लौकिक बुद्धि से यादृश ऐशी सत्ता समझी जाती है, सांख्यिय दृष्टि में वैसी ऐशी सत्ता असिद्ध है - ईश्वरासिद्धेः ( सां० सू० ११९२ ) ।
सांख्यिय दृष्टि के अनुसार अनेक प्रकार के ईश्वर हैं और प्रत्येक प्रकार में ईश्वर-व्यक्तियों की संख्या अवधारणीय नहीं है। सांख्यीय अनादिमुक्तचित्तवान् ईश्वर की संख्या भी अनिर्धार्य है। संख्या के अनिर्धार्य होने पर भी ईश्वर-प्रणिधान, में कुछ भी हानि या बाधा नहीं होती। त्रिगुण के कीदृश परिणाम होने पर उसमें सर्वज्ञता-सर्व- शक्तिमत्ता आदि ऐश गुण प्रकटित हो सकते हैं- यह सांख्यशास्त्र का एक आवश्यक विचार्य विषय है, यद्यपि कैवल्यसिद्धि की दृष्टि में सर्वज्ञता आदि विक्षेप ही हैं, मतः हेय हैं।
(१) कारिकाओं का पाठसम्बन्धी विचार-कुछ कारिकाओं के पाठ भ्रष्ट प्रतीत होते हैं, जिनको ठीक करने की चेष्टा की गई है। कुछ कारिकाओं के मूल पाठों को ऊहित करने की चेष्टा की गई है, जो आपातदृष्टि से निर्दोष हैं।
(२) तत्त्वकौमुदी के पाठों की समीक्षा- हमारी दृष्टि में तत्त्वकौमुदी के ८-९ वाक्य संशोधनाई हैं, जिनका संशोधन करने की चेष्टा यहाँ की गई है।
(३) तत्त्वकौमुदी में उद्धृत वाक्यों का आकर प्रन्यानुसारी अनुवाद -आकर ग्रन्थों का परिज्ञान न रहने के कारण जिन उद्भुत वाक्यों की व्याख्या अशुद्ध रूप से की जाती है, उनका परिहार इस ग्रन्थमें किया गया है।
(४) तत्त्वकौमुदी के अनुवादों की अशुद्धियों का प्रदर्शन-अंग्रेजी और हिन्दी में तत्त्वकौमुदी के कई अनुवाद-प्रन्य प्रचलित हैं। इन ग्रन्थ अनुवादों को अयुक्तता परिशिष्ट में यथास्थान द्रष्टव्य है।
(५) कारिका (एवं तत्त्वकौमुदी) के अस्पष्टार्थक एवं दुरूहार्थक शब्दों की व्याख्या- चेतन, अध्यवसाय, सङ्कल्प आदि शब्दों के शास्त्रकार-विवक्षित अर्थ यहाँ दिखाये गये हैं। परिशिष्ट में तत्त्वकौमुदी के गूढार्थक शब्दों एवं वाक्यों के अर्थ विशदरूप से किये गये हैं।
(६) कारिफोक्त युक्तियों की व्याख्या-कारिकोक्त युक्तियों का प्रकृत स्वरूप क्या है-यह यहाँ दिखाया गया है। हमारी दृष्टि में कारिकोक्त अनेक युक्तियों की प्रचलित व्याख्या अपूर्ण, स्थूल एवं सदोष है।
(७) सांख्यिय सिद्धान्तों की गम्भीरता एवं सूक्ष्मता का प्रतिपादन प्रत्येक सांख्यीय मत को गुणत्रय की दृष्टि से समझने की चेष्टा इस व्याख्या में की गई है। साथ-साथ सिद्धान्तों का परस्पर सम्बन्ध भी दिखाया गया है।
(८) भूत-तन्मात्र आदि तत्त्व एवं तत्त्व-निर्मित ईश्वरादि पदार्थों के स्वरूप का विशदीकरण-तत्त्वादि के स्वरूप के विषय में आजकल सर्वष विपर्यस्त ज्ञान ही दृष्ट होता है; जो जड़वैज्ञानिक शास्त्र के पदार्थों के साथ भूत बादि तत्त्वों के ऐक्य की बात करते हैं, वे अध्यात्म-शास्त्र को सर्वथा कर्षित करते हैं। ज्योतिष्मती-व्याख्या में इन विषयों पर शास्त्रानुमोदित विचार किया गया है।
(९) तत्वों की उपलब्धि की प्रक्रिया का विवरण-भूत-तन्मात्र इन्द्रियादि के स्वरूप को यथावत् समझने के लिए कहीं-कहीं इनकी उपलब्धि की पद्धति का लघु विवरण दिया गया है। साक्षात्कार की पद्धति को जानने से पदार्थ का स्वरूप कैसा होना बाहिए- इसका भी स्फुट शान हो जाता है-ऐसा समझकर साक्षात्कार पद्धति का विवरण दिया गया है। पद्धति के इस विवरण को पढ़कर कोई साक्षात्कार करने की प्रक्रिया को यथार्थ रूप से जान नहीं सकता- यह ज्ञातव्य है।
(१०) सांख्य-सम्बन्धी लोकप्रचलित भ्रान्त धारणाओं का दूरीकरण-प्रमा, प्रमाण, बन्ध, जीव, ईश्वर आदि के विषय में सांख्यीय मतों के रूप में जिन मतों का प्रतिपादन किया जाता है, उनमें से अनेक मत हमारी दृष्टि में सांख्यीय नहीं हैं, जैसा कि यहाँ दिलाया गया है।