निर्मलानन्तकल्याणनिधये विष्णवे नमः ॥
श्री रामानुजाचार्य स्वामी जी ने एक समय श्रीवेङ्कटाद्रि में श्रीवेङ्कटनाथ भगवान् की आज्ञा पाकर श्रीभगवान् की सन्निधि में वेद के तात्पर्यार्थी पर प्रकाश डालते हुये एक व्याख्यान दिया था। वही व्याख्यान उत्तरकाल में वेदार्थसंग्रह के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
प्रथम श्लोक से श्रीरामानुज स्वाभी जी प्रकृतप्रन्थ की निर्विनपरिसमाप्ति के लिये स्पष्टरूप में मङ्गलाचरण करते हैं तथा साथ ही प्रतिपाय अर्थ का संक्षेप रूप से वर्णन करते हैं। इनमें इष्टदेवता- नमस्काररूपमङ्गलाचरण शाब्द है, स्वपक्षस्थापनरूप प्रतिपाद्यार्थ संक्षेप अर्थसिद्ध है।
अपने पक्ष में प्रतिपाद्य अर्थ दो प्रकार का है। एक उपाय है जिसे साधन कहते हैं। दूसरा उपेय है जो साधन के द्वारा प्राप्य है। नित्यसिद्ध श्रीभगवान ही बद प्राप्य वस्तु हैं जो प्रथम श्लोक में चतुर्थ्यन्त पदोंसे निर्दिष्ट है।
नमः शब्द से उपाय सूचित होता है। इस प्रकार वे दोनों अर्थ इस श्लोक में निहित हैं। इस श्लोक में पूर्वार्ध से यह बतलाया गया है कि परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् दोनों विभूतियों से "" इत्यादि पर से यह लाया गया है कि वह श्रीभगवान् दोनों लिहों से युक हैं।
श्रीभगवान् निर्दोष हैं, यह एक लिङ्ग है, श्रीभगवान् कल्याणगुणों के निधि हैं, यह दूसरा लिन है। श्रीभगवान् इन उभयलिङ्गों से युक्त हैं।
"तत्त्वमति" इस उपनिषद् वाक्य का अर्थ करने में आचार्य विभिन्न मत रखते हैं। श्रीरामानुज सम्प्रदाय में उस वाक्य का जिस प्रकार अर्थ किया जाता है, उस पद्धति को सूचित करते हुये श्रीरामानुज जी" इस प्रथम पद से कि श्रीमान् लीलाविभूति से युक हैं। यह प्रकृतिमण्डल ही लीलाविभूति है।
इसमें श्रीभगवान् जीवों के साथ लीला करते हैं। इस लीला- विभूति में अनेक बद्ध चेतन तथा अनेक जड़पदार्थ रहते हैं। ये सभी चेतनाचेतन पदार्थ वस्तु वास्तव में है, पारमार्थिक है। इनमें कोई भी मिया नहीं है। श्रीसम्प्रदाय मे सीताविभूति में वेतन और अचेतन ऐसे उभयविध पदार्थों का सद्भाव प्रामाणिक माना जाता है। इससे यादवप्रकाश का चेतनैकान्त- बाद अमान्य ठहरता है।
यादवप्रकाश का मत यह है कि इस लीलाविभूति में सभी पदार्थ चेतन ही हैं, इनमें एक भी अचेतन नहीं है। लोक में जिन घट इत्यादि पदार्थों को अचेतन कहा जाता है, उनमें भी वास्तव में चैतन्य है। वह अभिव्यक्त नहीं है, इतनी ही विशेषता है। यह नहीं कि उनमें चैतन्य का अत्यन्ताभाव हो । इस वाद को दी चेतनैकान्तवाद कहा जाता है। यहाँ पर श्रीरामानुज स्वामी जी लीला- विभूति में चेतनाचेतन पदार्थों के सद्भाव का वर्णन कर इस बाद को अमान्य ठहराते हैं।
इन चेतनाचेतन पदार्थों के रोपी श्रीमान है। ये पदार्थ उनके शेष हैं। जो वस्तु दूसरे के लिये बनी हो उसे कहते हैं। ये चेतनाचेतन पदार्थ श्रीभगवान के लिये पते है इनसे श्रीभगवान् को लीला- रस मिलता है। ये श्रीभगवान के शेष हैं। श्रीभगवान् इनके शेषों हूँ।
इससे सिद्ध होता है कि ये पदार्थ श्रीभगवान् के शरीर हैं, श्रीभगवान इनके अन्तरात्मा हैं जो पदार्थ स्वभावतः ही किसी चेतन के प्रति शेष बना हो, उसे शरीर कहते हैं तथा उस चेतन को आत्मा कहते हैं। उदाहरण- हमारा यह शरीर स्वभाव से ही हम लोगों के प्रति शेष बनकर रहता है, यह सदा हम लोगों की सेवा करता है, हम लोग इससे अपने मनोरथों को पूर्ण करते रहते हैं।
इसी कारण यह शरीर कहलाता है, हम उसकी आत्मा कहलाते हैं। इसी प्रकार सभी चेतनाचेतन पदार्थ परमचेतन श्रीभगवान् के शरीर बनकर उनके मनोरथ एवं संकल्पों को पूर्ण करते रहते हैं, श्रीभगवान् उनके अन्तरात्मा बनकर उनसे लाभ उठाते रहते है।
इससे सिद्ध होता है कि सभी चेतनाचेतन पदार्थ श्रीभगवान् के शरीर हैं, श्रीभगवान् उनकी अन्त- रात्मा हूँ। इस प्रकार इन पदार्थों और परमात्मा में शरीरात्मभाव सम्बन्ध फलित होता है।
लोक में देखा जाता है कि शरीरवाचक शब्द शरीरों को बतलाते हुये उनके अन्दर रहने वाले आत्मा तक को बतलाते हैं। उदाहरण - "मनुष्य जानते हैं देव सुखी हैं" इत्यादि प्रयोगों में देव मनुष्य इत्यादि शब्द रत्तच्छरीरवारी आत्मा तक का बोध कराते हैं क्योंकि आत्मा ही जान सकता है तथा सुख भोग सकता है।
उपर्युक्त उदाहरण से शरीरवाचक शब्दों का आत्मपर्यन्तवाचकत्व सिद्ध होने पर यह अनायास सिद्ध हो जाता है कि चेतनाचेतन पदार्थ परमात्मा के शरीर हैं, अतः चेतनाचेतन पदार्थों के बाचक सभी शब्द उनके अन्तर्यामी परमात्मा तक का बोध कराते हैं। "तत्त्वमसि" इस वाक्य में "तत्"" शब्द जगत्कारण ब्रह्म को बतलाता है। "ख" शब्द समक्ष उपस्थित चेतन को बतलाता हुआ उसके अन्त- र्यामी परमात्मा तक का बोध कराता है।
इससे "तत्त्वमसि" वाक्य का यह अर्थ फलित होता है कि समक्ष उपस्थित चेतन का अन्तरात्मा जगत्कारण ब्रह्म है। इस प्रकार "तत्त्वमसि' इत्यादि अभेदनिर्देश जीवान्त- र्यामी और जगत्कारण ब्रह्म में अभेद को सिद्ध करते हैं, न कि जीव और त्रह्म में अभेद को सिद्ध करते हैं।
इसी प्रकार ही "सर्वं खल्विद ब्रह्म" इत्यादि अभेद निर्देश भी सभी चेतनाचेतन पदार्थो के अन्तर्यामी और ब्रह्म में एकता को सिद्ध करते हैं, न कि चेतनाचेतन पदार्थ और ब्रह्म में एकता को सिद्ध करते हैं। अभेद वचनों का यह निर्वाह श्रीसम्प्रदाय में अभिप्रेत है।
"यशेषचिदचिद्वस्तुशेषिणे" कहकर श्री रामानुजाचार्य स्वामी जी सम्प्रदायसिद्ध इस प्रक्रिया को खोला है, साथ ही यह भी बतलाया है कि शङ्कराचार्य और भास्कराचार्य के मत में विभिन्न श्रुतिवाक्यों का सरल निर्वाह नहीं होता है।
श्रीशङ्कराचार्य जीव और ब्रह्म का अभेद बतलाने वाले वाक्यों का स्वरूपैक्य में तात्पर्य माना है, जड़पदार्थ और ब्रह्म में अभेद बतलाने वाले वाक्यों का स्वरूपैक्य में तात्पर्य न मानकर जड़पदार्थों के बाघ में तात्पर्य माना है।
उनके मत में सब प्रकार अभेद वाक्यों में एकसा निर्वाह नहीं सम्पन्न होता है। एकरूप निर्वाह ही न्यायानुमोदित है। भास्कराचार्य के मत में भेद श्रुतियों का एकरूप निर्वाह नहीं होता है उन्होंने यह माना है कि जीव और ब्रह्म में भेद को बतलाने वाली श्रुतियाँ औपाधिक भेद को बतलाती हैं, तथा अचेतनपदार्थ और ब्रह्म में भेद को बतलाने बाली भुतियाँ स्वाभाविक भेद को बतलाती है। श्रीसम्प्रदाय में सभी श्रुतियों का समान रूप से निर्वाह होता है। यही इसका वैशिष्टय है।
यहाँ पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने आरम्भ में "निशेष" शब्द का प्रयोग न कर "अशेष" शब्द का प्रयोग इस भाव से किया है कि आरम्भ में परममङ्गल भगवद्वाचक अकार का उल्लेख किया जाय ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी प्रथमपद से श्रीभगवान् को लीलाविभूति से युक्त बतलाकर “शेषशायिने” इस द्वितीयपद से यह बतलाते हैं कि श्रीभगवान् भोगविभूति से युक्त हैं। श्रीभगवान् नित्य- सूरिभे श्री आदिशेष पर शयन करते हैं। इसलिये शेषशावी कहलाते हैं। यहाँ शेष शब्द भोगविभूति में विद्यमान पत्नी और परिजन इत्यादि को प्रदर्शित करने के लिये प्रयुक्त हुआ। इससे सिद्ध होता है कि श्रीभगवान् भोगविभूति एवं तत्स्थ सभी नित्य और मुक्कों से सदा युक्त हैं। यह उनका स्वभाव है।
इस प्रकार दोनों पदों से श्रीभगवान् के उभवविभूति सम्बन्ध को बतलाकर श्रीरामानुज स्वामी जी “निर्मलानन्तकल्याणनिधये” इस पद से यह बतलाते हैं कि श्रीभगवान् उभयलिङ्गों से सम्पन्न हैं। उनमें एक लिङ्ग है निर्दोषत्य । वह निर्मलपद से बतलाया गया है। श्रीभगवान् को निर्मल इसलिये कहा जाता है कि वे निर्दोष हैं तथा दोषों को नष्ट करने वाले हैं। श्रीभगवान का दूसरा लिङ्ग कल्याणकरत्व है ।