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यज्ञ मीमांसा -Yagya Mimansa PDF

यज्ञ मीमांसा -Yagya Mimansa PDF Upayogi Books

by Dr. Ramnatha Vedalankar
(0 Reviews) June 26, 2024
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June 26, 2024
Writer/Publiser
Dr. Ramnatha Vedalankar
Language
Hindi
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यज्ञ वैदिक धर्म का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसी को अग्निहोत्र भी कहा जाता है। हिन्दू समाज इसे कर्मकाण्ड के रूप में अपनाता है। 'यज्ञ' शब्द यज् धातु से बनता है, जिसमें देवपूजा, संगतिकरण और दान ये तीन अर्थ धातुपाठ में वर्णित हैं— 'यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु' । एवं इस एक शब्द में हमारे सभी कर्त्तव्यों का समावेश हो जाता है।

यज्ञ मीमांसा

दो शब्द

यज्ञ मीमांसा -Yagya Mimansa PDF

वैदिक विद्वान् पं० बुद्धदेव विद्यालङ्कार विद्यामार्तण्ड ने शतपथ ब्राह्मण के गहन अध्ययन के बाद यज्ञ की जो परिभाषा की थी वह भी द्रष्टव्य है-


"कल्याणार्थिना सामुदायिकं योगक्षेममुद्दिश्य समुदायाङ्गतया क्रियमाणं कर्म यज्ञः ।


अर्थात् कोई कल्याणार्थी अपने आप को समुदाय का अंग मानकर जिस समुदाय का वह अंग हो उसके सामुदायिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए जो कर्म करता है, वह यज्ञ है।


ख्यातिप्राप्त इतिहासज्ञ डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी 'यज्ञ' की परिभाषा करते हुए लिखते हैं-


"Thus sacrifice at a yajna meant self-sacrifice. The yajnas were evolved as modes of invocation of infinite and possessed of profound spiritual significance and educational value as aids to self-realisation. "2


अर्थात् यज्ञ का अर्थ स्वार्थत्याग होता है। यज्ञों का अनन्त परमेश्वर की स्तुति के रूप में विकास हुआ। वे अत्यन्त गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्व और आत्मानुभव के सहायक के रूप में शिक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे ।


इस यज्ञ को वैदिक वाङ्मय में श्रेष्ठतम कर्म स्वीकार किया गया है- 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म'। इसे सुख-शान्ति युक्त लोक में पहुँचाने वाली नौका भी कहा गया है- 'नौर्हवा एषा स्वर्ग्या यदग्निहोत्रम्' । जो इस यज्ञमयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यहीं इसी लोक में नीचे नीचे गिरते जाते हैं


"न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहम् इर्मैव ते न्यविशन्त केपयः " । यही नहीं, सत्यनिष्ठ विद्वान् लोग, यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते हैं, यज्ञों में सब श्रेष्ठ कर्मों का समावेश होता है।


"यज्ञेन यज्ञमजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।


इसका (यज्ञ का) फल क्या होता है, यह उक्त मन्त्र के उत्तरार्ध में बताया गया है-


“ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा ॥" अर्थात् यज्ञों द्वारा भगवान् की पूजा करने वाले महापुरुष, दुःख रहित मोक्ष को प्राप्त करते हैं, जहाँ सब ज्ञानी लोग निवास करते हैं।


ऐसे उत्कृष्टतम कर्म यज्ञ या अग्निहोत्र को वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रन्थों, स्मृति ग्रन्थों, गृह्यसूत्रों आदि में महिमामण्डित करते हुए उसका विशद विश्लेषण किया गया है। मनु और महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में मानव मात्र के लिए पाँच यज्ञों-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्व- देव यज्ञ को करने की प्रबल प्रेरणा दी है तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रमों में यज्ञ-निष्पादन की अनिवार्यता बतलायी है


यज्ञ / अग्निहोत्र के विधि-विधान को प्रकाश में लाने के उद्देश्य से नित्यकर्म विधि, पञ्च महायज्ञ विधि, यज्ञ रहस्य ब्रह्मयज्ञ एवं देवयज्ञ के साथ-साथ सोलह संस्कारों की सम्पूर्ण प्रक्रिया का प्रतिपादन महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत 'संस्कार विधि' में उपलब्ध है। इसकी और अधिक व्याख्या 'संस्कार भास्कर', 'संस्कार चन्द्रिका', 'संस्कार समुच्चय' आदि ग्रन्थों में निष्पादित की गई है।


देश के नामी-गिरामी विद्वानों ने याज्ञिकों को प्रतिदिन प्रातः सायं के लिए प्रस्तावित ब्रह्मयज्ञ व देवयज्ञ में विहित प्रत्येक क्रिया की विशद गहन जानकारी देने के उद्देश्य से एतद्विषयक कतिपय कृतियों की रचना की है, जिनमें मन्त्रों की व्याख्या भी प्रस्तुत की गई है। इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए मेरे पिता आचार्य डॉ० रामनाथजी वेदालङ्कार ने 'अग्निहोत्र दर्पण' नाम से एक पुस्तक लिखी थी, जिसका प्रकाशन श्री महात्मा वेदभिक्षुजी (पूर्व नाम पं० भारतेन्द्रनाथजी) की प्रेरणा से पण्डिता श्रीमती राकेश रानीजी ने दयानन्द संस्थान, वेद मन्दिर, नई दिल्ली से किया था, पर वह इतनी कम संख्या में छपी थी, कि कुछ ही पाठकों के हाथों में पहुँच पाई। इस संस्करण में इतना अधिक परिवर्तन परिवर्द्धन करना पड़ा कि यह नवीन ग्रन्थ के समान हो गया। यह 'यज्ञ मीमांसा' के नाम से द्वितीय संस्करण के रूप में विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली के यहाँ से वर्ष २००० में प्रकाशित हुआ था । यह भी कुछ ही समय में अनुपलब्ध हो गया, पर पाठकों में इसकी माँग बराबर बनी रही।


इस परिप्रेक्ष्य में लेखक ने द्वितीय संस्करण की सामग्री में यथोचित परिवर्धन किया। इस प्रकार तैयार तीसरे संस्करण की पाण्डुलिपि श्री प्रभाकरदेवजी आर्य हिण्डौन सिटी को प्रकाशनार्थ भेज दी। पर पिताजी की इच्छा थी कि यदि वैदिक वाङ्मय में यज्ञ की व्यापकता दर्शाने के उद्देश्य से पुस्तक में दो अध्याय- 'शतपथ ब्राह्मण में अग्निहोत्र विषयक आख्यान एवं शिक्षाएँ' तथा 'यज्ञः वैदिक वाड्मय और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में' सम्मिलित कर दिये जायें तो पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि हो सकती है। उन्होंने इन दो अध्यायों में से प्रथम अध्याय की रूपरेखा बनाकर विषयानुक्रमणिका में जोड़ दी थी, पर लेखन नहीं कर पाये। उनकी भावनाओं के अनुरूप इन दोनों अध्यायों का मेरे द्वारा लेखन कर पुस्तक में सम्मिलित कर दिया गया है।


एवं इस ग्रन्थ की प्रतिपाद्य विषयवस्तु निम्नवत् हो गई है- प्रथम अध्याय में यज्ञ और अग्निहोत्र के विषय में सामान्य विचार प्रकट किये गये हैं। इसमें वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थ आदि के आधार पर तथा स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों के आधार पर अग्निहोत्र के स्वरूप, काल, समिधा, हव्य, यज्ञकुण्ड- परिमाण, यज्ञ-पात्र आदि का सब विधान वर्णित करते हुए स्वामी दयानन्द की ही भाषा में यज्ञ के लाभों का विशद प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अध्याय यज्ञ चिकित्सा सम्बन्धी है। इसमें कुछ रोगों की वेदोक्त यज्ञ चिकित्सा का वर्णन करके आयुर्वेद के ग्रन्थों का प्रमाण देकर यह बतलाया गया है कि किस प्रकार यज्ञ चिकित्सा अन्य चिकित्सा पद्धतियों की अपेक्षा अधिक उपकारी सिद्ध हो सकती है। तृतीय अध्याय में अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ प्रतिपादक १२५ वेदमन्त्र अर्थसहित दिये गये हैं, जिनसे पाठकों को ज्ञात हो सकेगा कि वेद की दृष्टि में यज्ञ एवं अग्निहोत्र का कितना अधिक महत्त्व है। वेदोक्त लाभों की इस लम्बी सूची को देखकर एक बार तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है और पाठक सोचने लगता है कि कहीं यह अतिशयोक्ति तो नहीं है ? चतुर्थ अध्याय में संस्कार विधि में प्रोक्त अग्निहोत्र की विधियों तथा मन्त्रों की विस्तृत व्याख्या की गई है, जो इस ग्रन्थ की बहुमूल्य सम्पदा है। पञ्चम अध्याय में संस्कारविधि में पठित बृहद्यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों की व्याख्या है। ये मन्त्र अग्निहोत्र करते हुए किस स्थल के बाद पढ़े जाने चाहिए, इसकी भी मीमांसा की गई है। षष्ठ अध्याय में दो झाँकियाँ हैं। प्रथम अध्याय में आत्मिक अग्निहोत्र का एक चित्र उपस्थित किया गया है जिसमें दिखाया गया है कि आत्मिक अग्निहोत्र में अग्नि क्या है और इसमें समिधाओं तथा घृत की आहुति का क्या आशय होता है। दूसरी झाँकी में अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभों का प्रदर्शन है। सप्तम अध्याय शतपथ ब्राह्मण में अग्निहोत्र विषयक आख्यान और शिक्षाएँ विषयक है । अष्टम अध्याय में वैदिक वाङ्मय एवं श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भ में यज्ञ का विवेचन किया गया है। इस अध्याय के अन्त में एक अध्यात्म-गीत भी दिया गया है। नवम अध्याय में यज्ञ एवं अग्निहोत्र विषयक सूक्तियाँ दी गई हैं। अन्त में पाठकों की


सुविधा के लिए मन्त्राद्यनुक्रमणिका दे दी गई है। यहाँ यह संकेत करना असंगत न होगा कि पिताजी ने पुस्तक के रूप में अपना लेखन कार्य स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व 'वैदिक वीर गर्जना' से आरम्भ किया था, जिसे उन्होंने स्वयं प्रकाशित किया था। इसके बाद 'वैदिक सूक्तियाँ' का प्रथम संस्करण एवं 'वेदों की वर्णन शैलियाँ' का प्रथम संस्करण गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ। कालान्तर में कुछ कृतियाँ समर्पण शोध संस्थान से प्रकाशित हुई थीं । पर उन्होंने किसी भी पुस्तक के 'प्रकाशन का अधिकार' किसी भी प्रकाशक- विशेष को नहीं दिया था, पर अपनी सभी कृतियों का 'प्रकाशन अधिकार' लिखित रूप में श्री प्रभाकरदेव आर्य हिण्डौन सिटी को दे दिया था और इसी के साथ अपनी अन्यत्र से प्रकाशित सभी पुस्तकें संशोधन / परिवर्तन / परिवर्धन के साथ उन्हें प्रकाशनार्थ भिजवा दी थीं। इसी श्रृंखला में यह कृति 'यज्ञ मीमांसा' भी तृतीय संस्करण के प्रकाशन के लिए वर्ष २०१२ के अन्त में उन्हें भेज दी थी, जो अब उन्हीं के द्वारा हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी के माध्यम से प्रकाशित कर पाठकों तक पहुँचायी जा रही है। इसके साज-सज्जा पूर्ण प्रकाशन के लिए मैं श्री प्रभाकरदेव आर्य के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। आशा है यह संस्थान लेखक की अन्य कृतियाँ जो मुद्रण की प्रक्रिया में हैं- भी शीघ्र ही पाठकों तक पहुँचायेगा ।


आशा है पाठक इस ग्रन्थ में बहुत कुछ नया या नवीन शैली में लिखा गया पायेंगे तथा इससे कुछ ज्ञानवृद्धि पा सकेंगे। यदि पाठक इस ग्रन्थ से लाभान्वित हुए तो लेखक / सम्पादक अपने परिश्रम को सफल मानेंगे।


२१७, आर्य विरक्त (वानप्रस्थ + संन्यास) आश्रम, ज्वालापुर - २४९४०७ (हरिद्वार)

चलभाष : ९८९७५०९५६१

- विनोदचन्द्र विद्यालङ्कार

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