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आइए कथा को पढते हैं
एक युवक ज्ञान के लिए एक ऋषि के पास पहुंचा। ज्ञान प्राप्त करने के बाद शिष्य गुरु को दक्षिणा देना चाहता था।
गुरु ने कहा कि यदि तुम दक्षिणा में कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे इस संसार की सबसे बेकार वस्तु लाकर दो।शिष्य व्यर्थ ही किसी चीज़ की खोज में निकल पड़ा।
शिष्य ने अपना हाथ मिट्टी की ओर बढ़ाया तभी मिट्टी ने उसकी ओर देखते हुए कहा, क्या तुम मुझे बेकार समझते हो? क्या तुम नहीं जानते कि इस संसार का सारा वैभव मेरे गर्भ से ही उत्पन्न होता है? ये विविध वनस्पतियाँ, ये रूप, स्वाद और गंध कहाँ हैं वे कहां से आए? यह सुनकर शिष्य आगे बढ़ा।
कुछ दूरी पर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, मैं यह पत्थर ले लूंगा। लेकिन जैसे ही उसने पत्थर लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी से पत्थर से एक आवाज आई।
तुम इतने ज्ञानी होकर भी मुझे बेकार समझ रहे हो। क्या आप अपना घर, भवन आदि बनाते हैं? आप मंदिर और मूर्तियाँ किस चीज़ से बनाते हैं? मेरे उपयोग से नहीं? लेकिन तुम तो मुझे बेकार चीज़ समझ रहे हो!
यह सुनकर शिष्य अपनी योजना से पीछे हट गया। उसने सोचा जब मिट्टी और पत्थर के इतने सारे उपयोग हैं तो । आखिर व्यर्थ बस्तु क्या होगा ?
वह ध्यान कर रहे थे. भीतर से विचार उठा-सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में उपयोगी है। वास्तव में जो दूसरों को निकम्मा या महत्वहीन समझता है वह व्यर्थ और महत्वहीन है।
व्यक्ति के अंदर निहित अहंकार एक ऐसी चीज है जिसका कोई उपयोग नहीं होता है। वह गुरु के पास में वापस गया और गुरु के चरणों में गिर गया। उसने गुरु से क्षमा मांगी और कहा- गुरुवर! दक्षिणा के रूप में मैं अपना अहंकार आपको देना चाहता हूँ। क्योंकि दुनिया में कोई भी चीज़ इससे बेकार नहीं है.
शिष्य की बातें सुनकर गुरु मुस्कुराये और शिष्य को भरपूर आशीर्वाद दिया।
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