ज्योतिष विज्ञान भारत का एक विशिष्ट आविष्कार है , जिसका महत्त्व पश्चिम भी स्वीकार करता है । इस विज्ञान के अन्तर्गत उस समूची प्रक्रिया का प्रतिपादन आ जाता है जिसमें मनुष्य के जीवन में आने वाले सुख - दुख , हर्ष - विषाद , उत्थान - पतन , लाभ - हानि आदि को पहले से ही जाना जा सकता है । प्रस्तुत पुस्तक इस विषय का प्रामाणिक ग्रन्थ है । इतना ही नहीं , एक बड़ी विशेषता इसकी सरल एवं सुबोध शैली की है , जिसके फलस्वरूप अब इस शास्त्र का व्यावहारिक ज्ञान कोई भी व्यक्ति घर बैठे प्राप्त कर सकता है । इसके अध्ययन से वर्षफल बनाना , जन्मपत्री तैयार करना , सभी प्रकार के मुहूर्त और शुभाशुभ देखना , लाभ - हानि की सम्भावनाएँ परखना आदि तो सुगम होगा ही , इस विज्ञान के सभी मूलभूत सिद्धान्त , उनका इतिहास और उसके विकास - क्रम को भी भलीभाँति जाना जा सकेगा । गृहस्थों , ज्योतिष के विद्यार्थियों , पण्डितों व आचार्यों के लिए यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुई है ।
प्रथमाध्याय
आकाश की ओर दृष्टि डालते हो मानव मस्तिष्क में उत्कण्ठा उत्पन्न होती है कि ये ग्रह-नक्षत्र क्या वस्तु है ? तारे क्यों टूट कर गिरते हैं ? पुच्छल तारे क्या है और ये कुछ दिनों में क्यो विलीन हो जाते हैं सूर्य प्रतिदिन पूर्व दिशा में हो क्यो उदित होता है ? ऋतुऐं क्रमानुसार क्यो आती है ? आदि ।
मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है-क्यो ? कैसे ? क्या हो रहा है? और क्या होगा ? यह केवल प्रत्यक्ष बातों को ही जान कर सन्तुष्ट नही होता, बल्कि जिन बातो से प्रत्यक्ष लाभ होने की सम्भावना नही है, उनके जानने के लिए भी उत्सुक रहता है। जिस बात के जानने की मानव को उत्कट इच्छा रहती है, उस के अवगत हो जाने पर उसे जो आनन्द मिलता है, जो तृप्ति होती है उस से वह निहाल हो जाता है ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने पर ज्ञात होगा कि मानव को उपर्युक्त जिज्ञासा ने हो उसे ज्योतिषशास्त्र के गम्भीर रहस्योद्घाटन के लिए प्रवृत्त किया है। आदिम मानव ने आकाश को प्रयोगशाला में सामने आने वाले ग्रह, नक्षत्र और तारो प्रभृति का अपने कुशल चक्षुओं द्वारा पर्यवेक्षण करना प्रारम्भ किया और अनेक रहस्यों का पता लगाया। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि तब से अब तक विश्व की रहस्यमयी प्रवृत्तियो के उद्घाटन करने का प्रयत्न करने पर भी यह और उलझता जा रहा है।
ज्योतिषशास्त्र की व्युत्पत्ति “ज्योतिषां सूर्यादिप्रहाणां योधकं शास्त्रम्" की गयी है; अर्थात् सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहा जाता है। इस में प्रधानत. ग्रह, नक्षत्र, घूमकेतु आदि ज्योतिःपदार्थों का स्वरूप, संचार, परिभ्रमणकाल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपणएवं ग्रह, नक्षत्रो को गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलो का कथन किया जाता है। कुछ मनीषियो का अभिमत है कि नभोमण्डल में स्थित ज्योति सम्बन्धी विविध- विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं; जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है, वह ज्योतिषशास्त्र है। इस लक्षण और पहले वाले ज्योतिषशास्त्र के व्युत्पत्त्यर्थ में केवल इतना ही अन्तर है कि पहले में गणित और फलित दोनो प्रकार के विज्ञानो का समन्वय किया गया है, पर दूसरे में खगोल ज्ञान पर ही दृष्टिकोण रखा गया है। विद्वानो का कथन है कि इस शास्त्र का प्रादुर्भाव कब हुआ, यह अभी अनिश्चित है । हाँ, इस का विकास, इस के शास्त्रीय नियमों में संशोधन और परिवर्द्धन प्राचीन काल से आज तक निरन्तर होते चले आये है ।
भारतीय ज्योतिषशास्त्र की परिभाषा और उस का क्रमिक विकास भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कम्यत्रय - सिद्धान्त, होरा और संहिता अथवा स्कन्धपंच - सिद्धान्त, होरा, सहिता, प्रश्न जोर शकुन ये अंग माने गये है । यदि विराट पंचस्वन्यात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाये तो आज का मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थविज्ञान, रसायन- विज्ञान, चिकित्साशास्त्र इत्यादि भी इसी के अन्तर्भूत हो जाते है ।
इस शास्त्र की परिभाषा भारतवर्ष में समय-समय पर विभिन्न रूपो में मानी जाती रही है। सुदर प्राचीन काल में केवल ज्योतिः पदार्थों-ग्रह, नक्षत्र, तारो आदि के स्वरूपविज्ञान को ही ज्योतिष कहा जाता था। उस समय सैद्धान्तिक गणित का बोध इम शास्त्र से नही होता था क्योकि उस काल में केवल दृष्टि पर्यवेक्षण द्वारा नक्षत्रो का ज्ञान प्राप्त करना हो अभिप्रेत था ।
भारतीयो को जब सर्वप्रथम दृष्टि सूर्य और चन्द्रमा पर पडी थी, उन्होने इन से भयभीत हो कर इन्हें देवत्व रूप में मान लिया था। वेदो में कई जगह नक्षत्र, सूर्य एवं चन्द्रमा के स्तुतिपरक मन्त्र आये हैं। निश्चय ही प्रागैतिहासिक भारतीय मानव ने इन के रहस्य से प्रभावित हो कर ही इन्हें दैवत्व रूप में माना है ।
ब्राह्मण और आरण्यको के समय में यह परिभाषा और विकसित हुई तथा उस काल में नक्षत्रो को आकृति, स्वरूप, गुण एवं प्रभाव का प्रतिज्ञान प्राप्त करना ज्योतिष माना जाने लगा। आदिकाल में' नक्षत्रो के शुभा शुभ फलानुसार कार्यों का विवेचन तथा ऋतु, अयन, दिनमान, लग्न आदि के शुभाशुभानुसार विधायक कार्यो को करने का ज्ञान प्राप्त करना भी इस शास्त्र की परिभाषा में परिगणित हो गया। सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योति- करण्डक, वेदाग- ज्योतिष प्रभृति ग्रन्थो के प्रणयन तक ज्योतिष के गणित और फलित ये दो भेद अस्पष्ट नही हुए थे। यह परिभाषा यही सीमित नही रही, किन्तु ज्ञानोन्नति के साथ-साथ विकसित होती हुई राशि और ग्रहो के स्वरूप, रंग, दिशा, तस्व, धातु इत्यादि के विवेचन भी इस के अन्तर्गत आ गये ।
आदिकाल के अन्त में ज्योतिष के गणित सिद्धान्त और फलित ये दोनो भेद स्वतन्त्र रूप में प्रस्फुटित हो गये थे। ग्रहो की गति, स्थिति, अयनाश, पात आदि गणित ज्योतिष के अन्तर्गत तथा शुभाशुभ समय का निर्णय, विधायक, यश यागादि कार्यों के करने के लिए समय और स्थान का निर्धारण फलित ज्योतिष का विषय माना जाता था । पूर्वमध्यकाल को अन्तिम शताब्दियो में सिद्धान्त ज्योतिष के स्वरूप में भी विकास हुआ, लेकिन खगोलीय निरीक्षण और ग्रहवेध की परिपाटी के कम हो जाने से गणित के कल्पनाजालद्वारा ही ग्रहो के स्थानों का निश्चय करना सिद्धान्त ज्योतिष के अन्ततया गया ।