प्राक्कथन (भूमिका)
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपंकज स्मरणम् । वासर मणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥
स्वर्लोके विराजन्तं ज्योतिः शास्त्रे विचक्षणं
महर्षिभाव भावितम् ।
विश्व विख्यातं राजपण्डितं प्रपितामहऽहं
वन्दे देवीदयालु संज्ञकम् ॥
ज्योतिष जगत में भारतीय मनीषियों द्वारा रचित ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्त एवं फलित ग्रन्थों की कमी नहीं है, परन्तु अधिकांश ग्रन्थ विषय, शैली एवं रचना की दृष्टि से बहु-संस्कृतनिष्ठ एवं अनांनुक्रमिक होने से ज्योतिष के प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए सुगमता से बोधगम्य नहीं होते। मेरी चिरकाल से यह आकांक्षा थी कि ज्योतिष जैसे दुरूह्य विषय पर प्राचीन ग्रन्थों एवं अपने अनुभवों के अनुशीलन के पश्चात् ऐसी पुस्तक प्रणीत की जावे, जो ज्योतिष के गणित एवं फलित- दोनों विषयों पर सुगम एवं उपयोगी हो सके।
प्राचीनकाल से ही ज्योतिष शास्त्र का सम्बन्ध मानव, मानवीय सभ्यता एवं तत्सम्बन्धी इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। आदिकाल में केवल सूर्यादि ग्रहों एवं काल का बोध करवाने वाले शास्त्र को ही ज्योतिष शास्त्र माना जाता था - (ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधक शास्त्रम्) परन्तु शनैः-शनैः मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की बाह्य एवं आन्तरिक प्रवृत्तियों का अनुशीलन भी इसी शास्त्र के अन्तर्गत किया जाने लगा। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप - जैसे सुख-दुख, उन्नति - अवनति, इष्ट-अनिष्ट, भाग्योदयादि सभी का समाधान 'ज्योतिष शास्त्र' में ढूंढा जाने लगा ।
ज्योतिष कोई नया विज्ञान नहीं है और न ही यह कोई नवीन आविष्कार है, बल्कि अतीतकाल में यह एक अत्यन्त विकसित शास्त्र रहा है। जिसके अनेक मौलिक सूत्र सभ्यता और इतिहास के थपेड़ों से कहीं बिखर गए थे। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं विकीर्ण सूत्रों को एक सूत्र में पिरोने की मेरी अल्प चेष्टा मात्र होगी।
भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि में ज्योतिष सम्भवतः सबसे पुराना विषय है। ऋग्वेद में ९५ हजार वर्ष पूर्व ग्रह-नक्षत्र की स्थिति का वर्णन मिलता है। इसी आधार पर लोकमान्य तिलक ने ज्योतिष को इतने वर्ष के पूर्वकाल में इसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। वस्तुतः ज्योतिष एक वैज्ञानिक चिन्तन है, जो अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व एक जीवन्त संरचना (Organic Unity) है।
इस जगत में जो कुछ भी घटित हो रहा है अथवा भविष्य में घटित होगा, वह सापेक्षित है-अर्थात् प्रत्येक घटनाक्रम कारण अथवा कार्य रूप में किसी अन्य वस्तु पिण्ड से प्रभावित हो रहा है। भविष्य बिल्कुल अनिश्चित नहीं है, बल्कि वह संश्लिष्ट रूप से अतीत और वर्तमान से जुड़ा हुआ है। ज्योतिष केवल ग्रह-नक्षत्रों आदि का अध्ययन मात्र नहीं, बल्कि यह मनुष्य और प्रकृति को अलग-अलग आयामों से जानने की प्रक्रिया है।
आधुनिक विज्ञान भी अब स्वीकार करने लगा है कि ग्रह नक्षत्रों आदि से मनुष्य जीवन निश्चित रूप से प्रभावित होता है । परन्तु व्यक्तिगत रूप से कोई मनुष्य कितना प्रभावित होता है ? इस सम्बन्ध में अभी कोई निश्चित वैज्ञानिक मान्यताएं प्रकट नहीं हुईं। ज्योतिष इस सम्बन्ध में अवश्य उत्तर देता है। परन्तु मनुष्य पर ग्रहों आदि के प्रभाव के सम्बन्ध में यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि ग्रह-नक्षत्रादि सौर - पिण्ड मनुष्य जीवन के शुभाशुभ फलादेश के नियामक नहीं है, परन्तु सूचक हैं। (Planets indicate & impel the future happenings, they do not compel it) मनुष्य और प्राकृतिक पदार्थों के अणु -अणु का परिशीलन एवं विश्लेषण करना भी ज्योतिष शास्त्र का ध्येय है।
विश्व के समस्त क्रिया-कलापों को देशकालं एवं दिशा के तीन आयामों में स्वीकारते हुए हमारे पूर्वाचार्यों ने एक विराट काल पुरुष की कल्पना की है। काल पुरुष के अन्तर्गत नवग्रहों एवं द्वादश राशियों की परिकल्पना की गई है। जैसे सूर्य को काल पुरुष की आत्मा, चन्द्रमा को मन, मंगल को सत्त्व, गुरु को ज्ञानादि का प्रतीक माना गया है। इस भांति शिरादि पर मेष राशि का आधिपात्य माना गया है। (इनका विस्तृत विवेचन पुस्तक के भीतर किया गया है)
ज्योतिष शास्त्र की उपादेयता के सम्बन्ध में किसी भी बुद्धिजीवी व्यक्ति को सन्देह नहीं होना चाहिए। जैसे कि पहले भी लिखा है कि यह शास्त्र एक सूचनात्मक शास्त्र है। इस शास्त्र के ज्ञान के द्वारा मनुष्य को शुभ या अशुभ काल, यश-अपयश, लाभ-हानि, उन्नति - अवनति, जन्म-मृत्यु, भाग्योदयकाल आदि का ज्ञान हो सकता है।
जैसे वर्षा आगमन की सूचना शीतवायु के प्रवाह से पूर्वतः ही मिल जाती है एवं च जैसे मछलियों को समुद्रिक तूफान की पूर्वानुभूति हो जाती है, उसी भान्ति ज्योतिष आचार्यों द्वारा प्रणीत ज्योतिषीय सूत्रों से मनुष्य के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य काल की सूचनाएं इस शास्त्र के अनुशीलन द्वारा ज्ञात की जा सकती हैं। मनुष्य के अनुकूल, प्रतिकूल समय का ज्ञान कराने वाला एकमात्र साधन ज्योतिष ही है। ज्योतिष शास्त्र का सम्बन्ध प्रायः सभी शास्त्रों के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। दर्शन शास्त्र, गणित शास्त्र, खगोल एवं भूगोल शास्त्र, मंत्र शास्त्र, कृषि शास्त्र, आयुर्वेद आदि शास्त्रों के साथ तो ज्योतिष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मिलता है।
अतएव इस शास्त्र की सर्वाधिक उपयोगिता यही है कि यह मानव जीवन के अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रहस्यों का विवेचन करता है और मानव जीवन लाला का प्रत्यक्ष रूप में रखे हुए दीपक की भान्ति प्रकट करता है । व्यवहार के लिए अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, सम्वत्सर उत्सवों आदि का ज्ञान भी इसी शास्त्र द्वारा होता है। काल के मुख्य पांच अंगों तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण का सम्पूर्ण वर्णन ज्योतिष के वार्षिक प्रकाशन पंचांग द्वारा करवाया जाता है।
पंचांग में ग्रहों के उदय, अस्त, वक्री - मार्गी, राशि परिवर्तन, नक्षत्र प्रवेश, चन्द्र-सूर्यग्रहण, धार्मिक पर्व, सामाजिक उत्सव, महापुरुषों के जन्मदिन, वर्षा आदि का ज्ञान, विवाहादि शुभ मुहूर्त्त, राशि चक्र, सर्वार्थ सिद्धादि योगों तथा राजनीतिक भविष्यवाणियों का विशद वर्णन दिया रहता है । जिस कारण प्रत्येक हिन्दू धर्म-परायण व्यक्ति का इस शुद्ध गणित ग्रंथ (पंचांग) के प्रति श्रद्धावान होना स्वाभाविक ही है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर ज्योतिष शास्त्र का विशेष प्रभाव रहा है।
सिद्धान्त संहिता - होरारूपं स्कन्ध त्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं चक्षु ज्योतिः शास्त्रमनुत्तमम् ॥
सिद्धान्त ज्योतिष के अन्तर्गत नक्षत्रों एवं सूर्यादि ग्रहों की स्पष्ट गति व स्थिति, अयन, योग, ग्रहण, ग्रहों के उदयास्तादि के विषयों का सैद्धान्तिक विवेचन दिया रहता है । यथा- सिद्धान्त शिरोमणि संहिता ग्रन्थों में ग्रहस्थिति वश भिन्न-भिन्न काल पर विभिन्न देशों पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभावों का वर्णन जैसे-सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवर्षा, बाढ़, युद्ध, राज्य- क्रान्ति आदि का वर्णन रहता है ।
यथा - वृहत्संहिता, होरा शास्त्र में जातक के जन्म समय, वर्ष, अयन, ऋतु, मास, ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि के आधार पर मनुष्य सुख-दुख, लाभ-हानि आदि परिस्थितियों की सूचना मिलती रहती है। श्री पाराशरकृत होरा शास्त्र, वाराहामिहिर का वृहद्जातकम् आदि ग्रन्थ इसी क्षेत्र में आते हैं।
ज्योतिष तत्त्व-दो अलग-अलग भागों में प्रकाशित की जा रही है। प्रस्तुत प्रथम भाग में ज्योतिष के प्रारम्भिक इतिहास से लेकर ज्योतिष के विभिन्न अंगों, सृष्टिक्रम व सौर मण्डल का वर्णन, काल विभाजन, पंचांग परिचय, तिथियों, नक्षत्रों, राशियों एवं ग्रहों सम्बन्धी विस्तृत जानकारी के साथ साथ लग्न कुण्डली तैयार करने की सरल एवं सुगम प्रणालियां, राशियों एवं लग्नों के स्वोदयमान ज्ञात करना, नवग्रह स्पष्ट, भाव स्पष्टादि करना, चलित भाव चक्र, नवांशादि सप्तवर्गी की बृहद् जन्मपत्री निर्माण करने की सोदाहरण विधियां, विंशोतरी, अष्टतरी, योगिनी आदि दशाएं, अन्तर्दशाएँ, एवं प्रत्यन्तर्दशाएँ निकालने की सरल विधियां उदाहरण सहित वर्णन की गई हैं।
इनके अतिरिक्त ग्रहों के कालादि बल, शयनादि अवस्थाएं निकालने की विधियाँ एवं फल तथा अंत में जन्मपत्री द्वारा जातक के फलादेश कथन सम्बन्धी महत्वपूर्ण तथ्यों एवं दशाऽन्तर्दशाओं के फल का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिनका आद्योपान्त पठन, मनन एवं अभ्यास करने के पश्चात ज्योतिष का प्रारम्भिक विद्यार्थी सहज रूप से एक कुशल ज्योतिषी बन सकता है।
पुस्तक के इस नवीन संशोधित संस्करण में फलादेश में उपयोगी नियमों के अतिरिक्त संवत्सरों एवं ऋतुओं में जन्म का फल, चैत्रादि सौर मासों में जन्म फल, जन्म तिथि एवं सप्तवारों में जन्म का फल तथा सत्ताईस नक्षत्रों में जातक के जन्म का विस्तृत फलादेश संयोजित कर दिया गया हैं ताकि जिज्ञासु प्रारम्भिक विद्यार्थियों के मन में फलादेश सम्बन्धी अभिरूचियों को जागृत किया जा सके।
पाठकों के लाभार्थ, सूर्यादि ग्रहों की अन्तरदशाओं में प्रत्यन्तर दशाएं, प्रमुख नगरों के अक्षांश-रेखांश तथा जालन्धर से भारत के अन्य प्रसिद्ध नगरों के लग्नान्तर की सारणियों का समावेश भी कर दिया गया है।
यद्यपि ज्योतिष जैसे अत्यन्त गूढ़, विस्तृत एवं अगाध विषय को एक ही पुस्तक के अन्तर्गत कतिपय नियमों में आबद्ध करना प्रायः सम्भव कार्य नहीं है । तथापि अपनी अल्पमति एवं अपने दिवंगत पूज्य पण्डित देवी दयालु ज्योतिषी पं. मोहन लाल व दिवंगत पिता पं. चूनी लाल प्रभृति पूर्वजों के शुभाशीषों एवं प्रेरणा स्वरूप 'ज्योतिष तत्त्व' का यह लघु प्रयास कहां तक सफल हो पाया है।
इसका निर्णय तो स्वयं सुविज्ञ पाठकवृन्द ही कर पाएंगे। इस पुस्तक की रचना में जिन ज्ञात एवं अज्ञात विद्वानों एवं ग्रन्थों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्राप्त हुआ है, उन सबके प्रति मैं हृदय से आभारी हूं।
पुस्तक के लेखन-सम्पादन में असावधानीवश, यदि कहीं त्रुटि रह गई हो, तो सुविज्ञ पाठक कृपया यदि, अपनी अमूल्य सम्मति भेजने का कष्ट करेंगे तो, मैं उनका हृदय से आभारी रहूंगा, ताकि आगामी संस्करण में उनका संशोधन करके 'ज्योतिष तत्त्व' को जन साधारण के हितार्थ और भी अधिक उपयोगी बनाया जा सके। प्रस्तुत नवीन संशोधित संस्करण में सूर्यादि ग्रहों की स्थिति एवं दृष्टियों के विषय में ओर अधिक वर्णन किया गया है।
स्खलनं गच्छतः क्वाऽपि भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र समदधति सज्जनाः ॥
निवेदक :
पण्डित पन्ना लाल ज्योतिषी