पूर्व-कथन
काल चक्र के प्रभाव से सदियों से भारतवर्ष संसार के राष्ट्रों के बीच अपने पद के अनुरूप अपने स्थान में स्थित नहीं है, तथापि उसके गौरव का लोहा संसार के उन्नत से उन्नत राष्ट्र उसकी इस दीनावस्था में भी मानते हैं। इसका मूल कारण हमारे उन प्राचीन- तम तपोधन तत्त्व-दर्शी पूर्वजों की अमूल्य बपौती है, जिन्होंने उसे अपने तत्त्व-दर्शन से प्राप्त किया था। वह उनकी देन आज भी दरिद्र भारत एक पोटली में छिपाये अपने दुदिनों को शान्ति के साथ बिता रहा है । यह उसका वही अमूल्य घन है, जिसके कारण संसार के शक्तिशाली गर्वोन्मत्त महान् राष्ट्र भी उसे आदर की दृष्टि से ही नहीं देख रहे हैं, किन्तु उसके उस रहस्य का भेद जानने को भी उत्सुक रहते हैं।
भारत की प्राचीन संस्कृति का इतिहास जाननेवालों को यह बात भले प्रकार ज्ञात है कि इस देश के प्राचीनतम महर्षियों ने अपने तत्त्व-दर्शन के प्रयास में सर्वप्रथम ब्रह्मा से वेद-विद्या उपलब्ध की थी, जिसके द्वारा वे इह लोक-तत्त्व और पर-लोक-तत्त्व दोनों ही में सामञ्जस्य स्थापित करने में समर्थ हुए थे। उसी प्रकार तत्कालीन महर्षियों के एक समूह ने विष्णुदेव से भक्ति-विद्या की उपलब्धि की थी और उसके द्वारा उन्होंने आत्म-तत्त्व और परमात्म- तत्त्व दोनों में सरस ऐक्य भाव स्थापित किया था । तद्वत् ही उनके एक समूह ने सदाशिव को प्रसन्न करके मन्त्र-विद्या की प्राप्ति की थी, जिसके द्वारा वे लौकिक जीवन से लेकर पारलौकिक जीवन के पर पहुँच कर मूल तत्व का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए थे। ये तीनों ही विद्यायें भारतीय संस्कृति की आधारशिला के रूप में आज भी विद्यमान हैं और भारतीय अपने-अपने संस्कारों के अनुसार यथा माता उन्हें प्राप्त किये हुए हैं। इन तीनों विद्याओं में मन्त्र-विद्या सदैव रहस्य की बात रही है और इस समय भी वह पहले ही की भाँति रहस्यपूर्ण है।
कलियुग के पहले, जैसा कि संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है, इस मन्त्र-विद्या की उपलब्धि विशेष विशेष अधिकारी व्यक्ति ही कर पाते थे, परन्तु कलियुग में जब वेद-विद्या का महत्व घट चला और वह केवल एक श्रेणी के विशिष्ट व्यक्तियों तक ही सीमित रह गई, तब धर्म में भारी ग्लानि उत्पन्न हुई। ऐसी स्थिति के आ जाने पर परम दया-मयी जगज्जननी पार्वती को क्षोभ हुआ और उन्होंने महादेव से आग्रह किया कि लोक कल्याण के निमित्त मन्त्र-विद्या का उपदेश सर्व साधारण को किया जाय । युग-धर्म के अनुसार वह मन्त्र-विद्या तत्कालीन ऋषियों के द्वारा लोक-कल्याण के लिए सर्व साधारण पर प्रकट की गई।
आज उस विद्या का सारे समाज में व्यापक प्रचार है, परन्तु खेद की बात है कि उसकी साधना को विशेष प्रक्रिया का पहले जैसा प्रचार नहीं रहा । सर्व साधारण की सुविधा के लिए हमारे आचार्य उस प्रक्रिया को इतना सरल रूप देते गये कि साधक को शीघ्र से शीघ्र मन्त्र की सिद्धि हो जाय। यह इसी भावना का परिणाम है कि आज उस प्रक्रिया का एकदम लोप-सा हो गया है। सरलता की भावना ने वस्तुतः प्रक्रिया का उन्मूलन किया है। उसका परिणाम भी वही हुआ, जो होना चाहिए। लोग मन्त्र जानते हैं, सरल 'नुस्खों' के अनुसार उनका साधन भी करते हैं, परन्तु परि- णाम कुछ नहीं होता ।
यह एक मोटी बात है कि जो जितना अधिक व्यायामशील होगा, उसका शरीर भी तद्वत् ही बलवान होगा। यही बात मन्त्र की साधना में है । साधना में जितना ही परिश्रम किया जायगा, उसी अनुपात से उसमें सफलता भी प्राप्त होगी, परन्तु शीघ्र सिद्धि की प्राप्ति की लालसा से साधक लोग सरल-से-सरल उपाय ढूंढ़ते फिरते हैं । कोई परिश्रम करना नहीं चाहता । यद्यपि यह बात सबको ज्ञात है कि प्राचीन काल में मन्त्र की साधना में हमारे पूर्वज कितना घोर परिश्रम किया करते थे, तब कहीं उन्हें अव्यर्थ सिद्धि की प्राप्ति हुआ करती थी ।
यह सब जानते हुए भी आज के साधक ऐसे गुरु की ही खोज में रहते हैं, जो उन्हें चुटकी बजाते ही मन्त्र सिद्ध करवा दे । यह भारी भूल है । शास्त्र - निर्दिष्ट मार्ग को छोड़कर कदापि मन्त्र की वास्तविक सिद्धि नहीं हो सकती । यहाँ हम ऐसे ही उपाय की चर्चा करेंगे, जो शास्त्र द्वारा प्रतिपादित है और जिसका अनुसरण करके कोई भी साधक अपने मन्त्र की साधना में सफल - मनोरथ हो सकता है ।