परिचय
भारतीय जनता के एक वर्ग की बौद्ध धम्म में दिलचस्पी बढ़ती चली जा रही हैं इसके लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसके - साथ साथ एक और स्वाभाविक मांग भी उत्तरोत्तर बढती जा रही है और वह है भगवान् बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं के सम्बन्ध में एक स्पष्ट तथा संगत ग्रन्थ की।
किसी भी अबौद्ध के लिये यह कार्य अत्यन्त कठिन है कि वह भगवान् बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं को एक ऐसे रूप में पेश कर सके कि उनमें संपुर्णता के साथ साथ कुछ भी असंगति न रहे। जब हम दीघनिकाय आदि पालि ग्रन्थों के आधार पर भगवान् बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं तो हमें वह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता, और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। यथार्थ बात है और ऐसा कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि संसार में जितने भी धर्मों के संस्थापक हुए है, उनमें भगवान बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्यायें पैदा करता है जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। क्या यह आवश्यक नहीं कि इन समस्याओं का निराकरण किया जाय और बौद्ध धम्म के समझने समझाने के मार्ग को निष्कण्टक किया जाय? क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बौद्धजन उन समस्याओं को ले, उन पर खुला विचार-विमर्श करें और उन पर जितना भी प्रकाश डाला जा सके डालने का प्रयास करें?
इन समस्याओं की ही चर्चा को उत्पेरित करने के लिये मै उनका यहां उल्लेख कर रहा हूँ। पहली समस्या भगवान् बुद्ध के जीवन की प्रधान घटना प्रव्रज्या के ही सम्बन्ध में है। बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण की ? परम्परागत उत्तर है कि उन्होंने प्रव्रज्या इसलिये ग्रहण की क्योंकि उन्होंने एक वृद्ध पुरुष, एक रोगी व्यक्ति तथा एक मुर्दे की लाश को देखा था। स्पष्ट ही यह उत्तर गले के नीचे उतरने वाला नहीं। जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्ही तीन दृष्यों को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की तो यह कैसे हो सकता है कि २९ वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढे, रोगी, तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? यह जीवन की ऐसी घटनाये है जो रोज ही सैकडो हजारों घटती रहती है और सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि २९ वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बुढे, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और २९ वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा । यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती। तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि यह व्याख्या ठीक नहीं तो फिर इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर क्या है?
दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से ही उत्पन्न होती है। प्रथम सत्य है दुःख आर्य सत्य? तो क्या चार सत्य भगवान् बुद्ध की मूल शिक्षाओं में समाविष्ट होते हैं ? जीवन स्वभावतः दुःख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्ध धम्म की जड पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन ही दुःख है, मरण भी दुःख है, पुनरूत्पत्ति भी दुःख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धम्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही यदि दुःख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धम्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुःख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकता है क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुःखमय है। यह चारो आर्य सत्य- जिनमे प्रथम आर्य सत्य ही दुःख सत्य है अबौद्धों द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ऐसा लगता है कि ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते है। ये 'सत्य' भगवान् बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धम्म के रूप में उपस्थित करते हैं। प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या ये चार आर्य सत्य भगवान बुद्ध की मूल शिक्षायें ही है अथवा में बाद का भिक्षुओं का किया गया प्रक्षिप्तांश है?
एक तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही कहा जाता है कि उन्होंने 'कर्म' तथा 'पुनर्जन्म' के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है, 'आत्मा' ही नहीं तो कर्म कैसा ? 'आत्मा' हीं नहीं तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न है। भगवान् बुद्ध ने 'कर्म तथा 'पुनर्जन्म' शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या भगवान् बुद्ध ने इन शब्दों का किन्ही ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थो में भगवान् बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थ भेद क्या था ? अथवा उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया जिन अर्थों मे ब्राह्मणजन इनका प्रयोग करते थे ? यदि हां तो क्या 'आत्मा' के अस्तित्व के अस्वीकार करने तथा कम' और 'पुनर्जन्म' के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है ?
एक चौथी समस्या भिक्षु को ही लेकर है। भगवान बुद्ध ने किस उद्देश्य से भिक्षु संघ की स्थापना की ? क्या उनका उद्देश्य एक (समाज - निरपेक्ष) आदर्श मनुष्य का निर्माण मात्र था? उथवा उनका उद्देश्य आदर्श समाज सेवकों की रचना था जो इन सहायक के मित्र, मार्ग दर्शक तथा दार्शनिक एक साथ हों। यह एक अत्यन्त महत्व का प्रश्न है। इस पर बौद्ध धम्म का भविष्य तक निर्भर करता है । यदि भिक्षु एक "सम्पूर्ण मनुष्य" मात्र बना रहेगा तो उसका धम्मप्रचार कार्य में कोई उपयोग नहीं, क्योंकि वह एक "सम्पूर्ण मनुष्य" होने के बावजूद एक "स्वार्थी आदमी ही बना रहेगा। दूसरी ओर, यदि वह समाज सेवक भी है तो उससे बौद्ध धम्म भी कुछ आशा रख सकता है। इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया ही जाना चाहिये; सैद्धान्तिक संगति बैठाने के लिये ही नहीं, भावी बौद्ध धम्म के हिताहित की दृष्टि से भी । मैं समझता हूँ कि मेरे द्वारा उठाये गये थे प्रश्न (जिन का उत्तर आप इस पुस्तक में पायेंगे अनु.) पाठकों को कुछ सोचने- विचारने पर मजबूर करेंगे और वे भी यथासमय अपना मत जागृता से व्यक्त करेंगे ही।